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[जीवन के छेद । १४५ जब हमारी वाणी गड़बड़ा जाती है—क्रोध, मान, माया और लोभ के आवेश में वचन निकलते हैं, तो कैसी आग लग जाती है।
आपने महाभारत की लड़ाई का जिक्र तो सुना होगा, पर उसके मूल कारणों पर भी कभी विचार किया है। भाइयों-भाइयों के उस भयंकर विनाशकारी युद्ध का असली कारण क्या था। हम देखते हैं, कि वचनों का अविवेक ही उसके मूल में था। दुर्योधन और द्रौपदी ने वचनों का ठीक तरह प्रयोग नहीं किया, और अयोग्य शब्दों, का प्रयोग किया, तो वह आग सुलगती-सुलगती प्रचण्ड ज्वालाओं के रूप में परिणत हो गई, और भारत की एक बड़ी शक्ति उन ज्वालाओं में भस्म हो गई।
इस प्रकार जब मन और वाणी से भी आस्रव होता है, और पापों का आगमन होता है, तो शरीर को ही नाव क्यों बतलाया गया है।
इस प्रश्न का उत्तर पाने के लिए हमें देखना चाहिए, कि मन रहता कहाँ है और वचन कहाँ है। मन और वचन की स्थिति शरीर में ही है। यह जो हमारा शरीर है, इसी में मन, वचन और काय हैं। और इन तीनों में ही जीवन की नाव बह रही है। इस प्रकार मन, वचन और काय में जीवन व्यतीत हो रहा है। हमारे मन की प्रवृत्तियाँ भी जीवन हैं, हमारे वचन भी हमारे जीवन के अंग हैं और काया की प्रवृत्तियाँ भी जीवन से अलग नहीं हैं। इन तीनों की समष्टि का नाम ही जीवन है। ____ आप मन से सोचते और विचार करते हैं, यह भी एक प्रवृत्ति है और वचन कहाँ है। वचन बोलते हैं, यह भी एक प्रवृत्ति है, और शरीर से नाना प्रकार की चेष्टाएँ करते हैं, यह भी एक प्रवृत्ति है। आत्मा के पास यह तीनों शक्तियाँ हैं। मन, वचन
और काय के द्वारा आत्मा का व्यापार होता है। ___जैन पुराणों में एक उदाहरण आता है, विष्णुकुमार मुनि का। वैदिक पुराणों में भी इसी से मिलती-जुलती एक कथा है। संक्षेप में वह इस प्रकार है---- __बलि एक राजा था, और राक्षस था। वह बड़े-बड़े यज्ञ करता था। उसने ऐसे बड़े-बड़े यज्ञ किए, और उसका पुण्य इतना बढ़ा कि देवता भी डरने लगे। उन्होंने सोचा-बलि इतना दान कर रहा है; धर्म कर रहा है, और यज्ञ कर रहा है, तो यह देवताओं का राज्य हथिया लेगा। यानी हमारे पुण्य से भी अधिक पुण्य उपार्जन कर लेगा, तो हमारे ऊपर अधिकार जमा लेगा।
देवताओं ने मिलकर विचार किया, और वे सब मिलकर विष्णु के पास पहुंचे। बोले-आपके सामने ही हमारा साम्राज्य तो दूसरे हाथों में जाने ही वाला है। बलि इतना दान देता है, और यज्ञ करता है, कि उसका पुण्य बढ़ता चला जा रहा है। एक
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