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मा पडिबंधं करेह
यह उपासकदशांग सूत्र है, और आनन्द का वर्णन आपके सामने चल रहा है।
कल आपने सुना, कि आनन्द ने जब श्रावक-व्रत ग्रहण करने की इच्छा प्रकट की तो भगवान् ने उत्तर दिया-'जहासुहं देवाणुप्पिया!' अर्थात् हे देवों के प्यारे, जिसमें आत्मा को सुख उपजे, वही करो। मतलब यह कि तुम्हारी इच्छा और तुम्हारा संकल्प जागृत हुआ है, और तुम आध्यात्मिक भूमिका में आना चाहते हो, तो अच्छी बात है। इसमें कोई बलात्कार नहीं है, कोई खींच-तान नहीं है। यह तो भावना का मार्ग है। इस मार्ग पर अपने पैरों से चला जाता है, घसीट कर नहीं चलाया जाता।
कल इसी संबंध में विवेचन किया गया था। इस सिद्धान्त को समझने में किसी प्रकार की भ्रान्ति न रह जाए, इस अभिप्राय से आज भी इस संबंध में थोड़ा स्पष्टीकरण करना चाहता हूँ।
प्रश्न यह है, कि धर्माचरण के लिए किसी को प्रेरणा दी जाए या नहीं ? किसी को सत्कर्म करने के लिए और कल्याण की राह पर लाने के लिए प्रयत्न किया जाए या नहीं ? अथवा प्रत्येक को उसकी इच्छा पर ही छोड़ दिया जाए ? कह दिया जाए, कि हम कुछ नहीं कहते, तुम्हरी जैसी इच्छा हो, करो। इच्छा की संपूर्ति के लिए पुरुषार्थ भी परम आवश्यक है।
इस प्रश्न पर हमें विचार कर लेना चाहिए। मैं कह चुका हूँ, कि प्रयत्न करना हमारा हक है, अधिकार है, और कर्त्तव्य भी है। जहाँ कहीं भी गलती या बुराई दिखाई दे, चाहे वह व्यक्ति में हो, परिवार में हो, संघ या समाज में हो अथवा देश में हो, साधु उसे दूर करने के लिए प्रयत्न करे-जरूर करो। वह चुपचाप नहीं बैठा रहे। उस बुराई को मिटा देने के लिए अपनी सम्पूर्ण शक्ति लगा दे। किन्तु इतना सब करने के पश्चात् भी अगर भूमिका तैयार नहीं होती, जीवन में उल्लास नहीं आता, चमक नहीं आती, और हृदय हर्ष से गद्गद नहीं होता, साधक का मन सोया पड़ा रहता जागता नहीं है, तो उसे घसीटा नहीं जा सकता।
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