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इच्छा-योग-'जहासुहं' । १२७ दस महीने हो गए हैं। आज तक कभी कुछ नहीं पाया है, फिर भी प्रतिदिन आता रहता है।
और तब ब्राह्मणी ने भिक्षु से कहा—क्या करूँ भिक्षु, मैं दे दूँ तो पण्डितजी नाराज़ हो जाएँगे। मैं विवश हूँ।
भिक्षु ने शान्त भाव से कहा- ठीक है बहिन ! मैं अपना काम करता हूँ, तुम अपना काम करो। मेरे कारण घर में कलह नहीं होनी चाहिए। मैं जाता हूँ ।
भिक्षु लौट गया । वह लौटा ही था, कि सामने से ब्राह्मण आ गया । भिक्षु को देखते ही वह समझ गया, कि यह कहाँ से आ रहा है। फिर भी उसने कहा- ' ' अरे मुंडित । कहाँ गया था ?"
'आपके घर से ही तो आ रहा हूँ।'
'क्या कुछ मिला ?'
'हाँ, आज तो कुछ मिल गया ?'
ब्राह्मण सुन कर लाल-पीला हो गया। उसने भिक्षु से कहा 'जरा ठहरना । ' वह अपने घर में गया। पूछा—'आज उस मुंडे को कुछ दे दिया है ?' ब्राह्मणी, ब्राह्मण की मुखमुद्रा देख कर सकपका गई। उसने कहा-'नहीं, मैंने तो कुछ दिया नहीं है।' ब्राह्मण-'तब वह झूठ बोलता है । '
ब्राह्मण बाहर आया। उसने आसपास के लोगों को इकट्ठा कर लिया। फिर भिक्षु से कहा- 'तुम असत्य क्यों बोले ? कैसे कहा, कि आज कुछ मिल गया है। बताओ, क्या मिला है ?'
मधुर मुस्कान के साथ भिक्षु ने कहा- ' आज आपकी पत्नी ने 'ना' दिया है। दस महीने मुझे आते-आते हो गए। आज से पहले 'ना' भी नहीं मिलता था। आज इतनी सफलता मिली। यह क्या कम सफलता है ? आज 'ना' मिली है, तो किसी दिन 'हाँ' भी मिल जाएगी । '
ब्राह्मण कुछ शान्त हुआ । उसने कहा- 'यह प्रयत्न कब तक करते रहोगे ?' भिक्षु - 'जब तक जीवन है । '
भिक्षु का उत्तर सुनकर ब्राह्मण पिघल गया, और उसके सम-भाव को देख कर हर्ष से गद्गद हो गया। सोचने लगा, यह भी जीवन है। घर आते दस महीने हो गए। कभी कोई सामान नहीं मिला । अन्न का दाना नहीं मिला। फिर भी आता है, और 'भैया' अन्न-पानी की सुविधा है' कह कर लौट जाता है। इसके सिवाय कभी कुछ नहीं कहता । धन्य है, भिक्षु की समता और सहिष्णुता । इसमें कितनी शक्ति और कितनी स्निग्धता है ।
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