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१२६ । उपासक आनन्द ।
एक बार वहाँ बौद्धसंघ इकट्ठा हुआ। उसमें चर्चा चली, कि कौन भिक्षु ऐसा है, जो उस ब्राह्मण को बौद्धधर्म की दीक्षा दे सके। हिंसा के मार्ग पर चलने वाले उस ब्राह्मण को कौन धर्म-मार्ग पर ला सकता है ?
एक भिक्षु ने कहा मैं प्रयत्न करूँगा।
दूसरे ने कहा—पागल हो गए हो, क्या। उसमें कुछ भी तथ्य नहीं है। वह अभद्र है। उसे धर्ममार्ग पर लाना आकाश के तारे तोड़ लाना है।
किन्तु पहला भिक्षु अपने संकल्प पर अविचल रहा।
वास्तव में भिक्षु का संकल्प उचित ही था। सभी धर्म मनुष्य पर विश्वास रखते हैं। मानते हैं, कि आज जिसे जड़ता ने घेर रखा है; उसमें भी कभी न कभी चेतना की जागृति हो सकती है। जो आज अंधकार में भटक रहा है, वह कभी तो प्रकाश में आएगा। आखिर तो आत्मा स्वभावतः चेतना-मय है, प्रकाशमय है। कब तक भूलाभटका रहेगा। इसी सिद्धान्त और विश्वास के बल पर मनुष्य प्रयत्न करता है, और करता ही रहता है, और एक दिन उसका प्रयत्न सफल भी हो जाता है। __ हाँ, तो उस भिक्षु ने भी यही सोचा। कुछ भी क्यों न हो, ब्राह्मण आखिर पण्डित है। उसमें ज्ञान है। ठीक है, उसका ज्ञान गलत राह पर उसे चला रहा है, मगर राह बदलते क्या देर लगती है। बदले या न बदले, प्रयत्न करना मेरा कर्त्तव्य है। यही मेरी साधना और संघ-सेवा होगी।
इस प्रकार विचार कर भिक्षु उस ब्राह्मण के घर, भोजन के समय, जाने लगा। जाने लगा तो ब्राह्मण को उसका आना अरुचिकर हुआ। उसने अपने घर आने वालों से कह दिया, कोई इस भिक्षु से बातचीत न करे। यह दुर्बुद्धि है। उसके साथ वार्तालाप करने से भी पाप लगता है। __ भिक्षु ब्राह्मण के घर गया तो कोई घर वाला नहीं बोला। वह लौट आया। किन्तु भिक्षु दूसरे दिन फिर वहाँ जा पहुँचा। बोला—क्या आहार-पानी की सुविधा है। फिर भी सब चुप रहे। वह फिर लौट आया। तीसरे दिन भी वह पहुँचा और फिर लौट आया। यों जाते-जाते और खाली हाथ लौटते-लौटते दस महीने गुजर गए। प्रतिदिन जाना और अपनी वही बात दोहराना, शान्त भाव से, बिना किसी घृणा और नफरत के, बोली में मिश्री घोल कर—भैया, आहार-पानी की सुविधा है। फिर बिना खेद, सन्तुष्ट भाव से लौट आना, उसका दैनिक कार्य हो गया। ___ एक दिन भिक्षु जब पहुँचा तो ब्राह्मण घर पर नहीं था। आहार-पानी की याचना की तो ब्राह्मणी का हृदय पसीज गया। वह सोचने लगी, बेचारे को यहाँ आते-आते
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