________________
| इच्छा-योग-'जहासुह' ।१२५ आशय यह है, कि जो जिज्ञासु या मुमुक्ष हमारे पास आया है, हम अपने कौशल से उसकी भूमिका को समझने का प्रयत्न करें। देखें कि जैनधर्म पर उसका विश्वास है, या नहीं। उसके पारिवारिक संस्कार किस प्रकार के हैं। उसकी धार्मिक रुचि का किस सीमा तक विकास हुआ है। बातों को समझ कर दिया गया उपदेश सफल होता है। ___ जिसने भोगोपभोगों की असारता को भलीभाँति समझ लिया है, और जिसके
अन्तःकरण में सांसारिक प्रपंचों से हटकर एकान्त साधनामय जीवन-यापन करने का विचार पैदा हुआ है, उसे साधु बन जाने का उपदेश दिया जा सकता है। अगर किसी की भूमिका इतनी उच्च नहीं बन पाई है, तो उसके श्रावक बन जाने में भी क्या कम लाभ है। जो श्रावक की भूमिका के योग्य भी नहीं है, वह यदि सम्यग्दृष्टि बन गया, तो भी क्या कम लाभ हुआ। उसने एक मंजिल तय कर ली है। अनादि काल से भटकटे-भटकते यदि उस भूमिका पर आ गया, तो कम सफलता की बात नहीं है। यदि इतना करना भी किसी के लिए शक्य न हो, तो उसके विषय में भी जैनधर्म कहता है, जैसा कि चित्त मुनि ने चक्रवर्ती ब्रह्मदत्त से कहा था
जइ तं सि भोगे चइउं असत्तो,
अज्जाइ कम्माइं करेह रायं। धम्मे ठिओ सव्व-पयाणु-कंपी, होहिसि देवो इओ विउव्वी॥
—उत्तराध्ययन, १३ अर्थात् हे राजन! तुम भोगों का त्याग नहीं कर सकते, तुममें साधु बनने की योग्यता नहीं है, तो न सही, आर्यजनोचित कर्म तो करो भलमनसाहत के ही काम करो। राजा बने हो, तो अपने राज-कर्त्तव्य का ही पालन करो। तुम्हारी प्रजा है, देश है, नागरिक हैं, उन पर तो करुणा का भाव रख सकते हो, और उनकी तरक्की के काम कर सकते हो। मांस-मदिरा जैसी गर्हित वस्तुओं का त्याग कर दो-इतना त्याग कर देने से भी देवता बन सकते हो।
इस प्रकार चित्त मुनि ऊपर से चले और आखिर नीचे आते-आते यहाँ तक आ गए। यही इच्छा-धर्म है, और यह धर्म महान् संदेश देने को आया है।
इस प्रसंग पर मुझे इतिहास की एक घटना याद आ रही है। स्यालकोट का नाम पहले सगलकोट था। वहाँ एक पण्डित जी रहते थे। बड़े ही संकीर्ण विचारों के थे, वह ! उनकी मान्यता थी, कि अवैदिक साधु की परछाई पड़ जाए, तो स्नान करना चाहिए।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org