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आस्तिक आनन्द
यह उपासकदशांग सूत्र है, और आनन्द के जीवन का वृत्तान्त आपके सामने है।
आप सुन चुके हैं कि आनन्द ने प्रभु का प्रवचन सुना, उस पर विचार किया और उसका हृदय हर्ष से गद्गद हो गया। आनन्दमयी उस वाणी को सुनकर आनन्द का मन पुलकित हो उठा, जीवन का वास्तविक स्वरूप उसके सम्मुख आकर खड़ा हो गया। उसके मन में पवित्र विचारों की चल-लहरियाँ प्रवाहित होने लगी, वे उसके असीम हृदय में समा न सकीं। समा न सकी, फूट कर बाहर वह चलीं। उन्हीं चललहरियों में डूबता-उतराता आनन्द सरस वाणी में भगवान् से कहने लगा___ 'भगवन् ! आपकी यह वाणी, यह प्रवचन निर्ग्रन्थ की वाणी है।' निर्ग्रन्थ का अर्थ है गांठ-रहित। जिसका हृदय भी स्वच्छ और निर्मल हो, और जिसकी वाणी भी स्वच्छ और निर्मल हो। जिसके जो भीतर है, वही बाहर भी हो। अक्सर देखने में आता है, लोग ऊपर से या वाणी में तो साफ-सुथरे होते हैं; मगर पेट में उनके विष की गाँठ पलती रहती है, ऐसे व्यक्ति निर्ग्रन्थ नहीं हो सकते। सच्चा निर्ग्रन्थ तो वही है, जिसने भीतरी गाँठ को भी तोड़ दिया है। ऐसे निर्ग्रन्थों की वाणी सुनने वालों को निर्ग्रन्थ बना देती है। वह राग-द्वेष और विषय-वासना की गाँठ बड़ी दुर्भेद्य है, जिसने हमारे मन को उलझा रखा है, जिसने हमारी आत्मा को बाँध रखा है, और मन को बाँध रखा है। एक चक्रवर्ती सोने के महलों में बैठा है, और सूर्योदय से सूर्यास्त तक अपना झंडा लहराता है। लाखों मनुष्यों को बन्दरों की तरह नचाता है। किन्तु जब उसी सम्राट का मन वासनाओं का गुलाम होता है, इन्द्रियों का दास होता है, तो वह कितना लाचार हो जाता है। कितना बेबस हो जाता है। वह स्वतंत्र जनता के लिए है, अपने आप में आजाद नहीं है।
सोचो, तो अपने आप में सोचो। इन्द्रियों की भाषा में मत सोचो। स्वतंत्रता पर विचार करो; किन्तु आत्मा की भाषा में विचार करो। क्या यही स्वतंत्रता है, चक्रवर्ती
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