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इच्छा - योग-'जहासुहं'
यह उपासकदशांग सूत्र है, और आनन्द का वर्णन आपके सामने चल रहा है। आनन्द, भगवान् की वाणी श्रवण करने के पश्चात् अपने जीवन की भूमिका निश्चित करने के लिए कहने लगा
भगवन्! आपके चरणों में कई सेठ, सेनापति, श्रावक आदि साधकों ने मुनि दीक्षा धारण की है, और वे आपकी सेवा कर रहे हैं; किन्तु मेरी इतनी ही भूमिका है, कि मैं श्रावक के बारह व्रत ही ग्रहण करूँ ।
आनन्द के इस आत्म-निवेदन पर भगवान् ने उत्तर दिया
जहासु देवाणुपिया ! मा पडिबधं करेह ।
हे देवानुप्रिय ! हे देवताओं के वल्लभ ! 'जहासुहं' जो तुम्हारी आत्मा को सुख दे, जो कल्याण का मार्ग समझ में आया हो, और जिसमें तुम्हें सुख मिले तुम वैसा ही करो; किन्तु धर्म के काम में प्रतिबन्ध मत करो ।
सम्पूर्ण आगम - साहित्य में, जहाँ कहीं हम पढ़ते हैं, भगवान् ने प्रत्येक साधक से यही बात कही है।
जब भी कोई साधक भगवान् के चरणों में पहुँचा और उसने किसी व्रत, नियम या प्रतिज्ञा लेने की भावना प्रकट की तो भगवान् ने उससे यह नहीं कहा, कि ' अरे, यह क्या कर रहा है । यह तो कुछ भी नहीं है । कुछ और अधिक कर । समस्त आगम - साहित्य को देख जाने पर भी आपको कहीं भी यह नहीं दीख पड़ेगा, कि किसी प्रकार की कोई खींचतान की गई हो, साधक की इच्छा में दखल दिया गया हो, या उसमें कुछ परिवर्तन किया गया हो। सब जगह भगवान् की ओर से एक ही उत्तर है - और वह उत्तर वही है, जो इस समय आनन्द को दिया गया है, कि
'हे देवानुप्रिय ! जैसे सुख उपजे, वैसा करो। मगर धर्म - कार्य में प्रतिबन्ध मत करो।' इस छोटे से वाक्य पर अगर हम विचार करें, तो जैनधर्म का हृदय, जैनधर्म का
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