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१०८ | उपासक आनन्द वर्तमान में मिली प्रतिष्ठा और सम्पत्ति को ही देखता है। यह नहीं देखता है, कि आज सब कुछ है, कल क्या होगा!
मुंद गई अँखियां, तब लाखन कौन काम की! बड़े-बड़े चक्रवर्ती आए, और सिंहासन पर बैठे, किन्तु जब प्राण निकले, तो क्या हुआ। जिसे एक मक्खी भी बर्दाश्त नहीं होती थी, और हवा का झौंका भी सहन नहीं होता था, वही जलती हुई ज्वालाओं में झौंक दिया गया, और जल कर खाक हो गया। फिर बाकी क्या रह गया ? ___ बड़े-बड़े धनी-मानी माया को छाती से लगाए रहते हैं। एक कौड़ी की ममता नहीं छोड़ सकते। चमड़ी जाए, पर दमड़ी न जाए। इस कहावत को अपना जीवनसिद्धान्त बना कर चलते हैं, पैसे-पैसे के लिए प्राण देने को तैयार रहते हैं, परन्तु श्वाँस निकल गई, और दिल की धड़कन बन्द हो गई तो क्या सम्बन्ध रह गया उस सम्पत्ति से।
मतलब यही है, कि जिसकी दृष्टि केवल वर्तमान तक ही सीमित है, जो भूत से शिक्षा लेकर भविष्य को कल्याणमय बनाने का विचार नहीं करता, वास्तव में वही नास्तिक है।
भारत में एक बृहस्पति ऋषि हो चुके हैं. उनका दर्शन चार्वाक-दर्शन के नाम से प्रसिद्ध है। एक दिन उन्हें एक आदमी मिला। दुबला-पतला था। वहाँ उन्होंने उससे पूछा-इतने दुबले क्यों हो। उसने कहा-क्या बतलाएँ महाराज! ऐसी ही हालत चल रही है। पैसा नहीं है।
ऋषि बोले—तुम मूर्ख मालूम होते हो। आदमी ने पूछा—कैसे महाराज ?
ऋषि—पैसों की दुनियाँ में क्या कमी है। किसी सेठ से कर्ज ले लो, और घी पिओ और तगड़े बन जाओ।
आदमी—कर्ज ले लेंगे, तो चुकाना पड़ेगा। ऋषि—चुकाने की क्या बात है। तगड़े हो ही जाओगे, एक मजबूत लट्ठ और खरीद लेना। कर्ज माँगने आए, तो दिखा देना लट्ठ, ताकि दूसरी बार वह माँगने भी न आए।
आदमी—मौजूदा जिंदगी का फैसला तो कर लिया, शायद इस तरह यह जिंदगी आराम से निकल जाए, और पकड़ में न आऊँ; मगर आगे चल कर क्या होगा? अगले जन्म में लेने के देने पड़ जाएँगे?
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