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आस्तिक आनन्द । १०७ कभी राजकुमार हए और बड़ा रूप पाया। इतना अहंकार आ गया, कि जमीन पर पैर नहीं टिकते। जरा-सा हल्ला मचा, थोड़ी-सी गड़बड़ी हुई, तो गरज उठे—जानते हो मैं कौन हूँ? ___यहाँ जैनधर्म कहता है. जी हाँ, जानते हैं। आप वही हैं जो एक दिन सड़ती हुई गंदी नाली में लट के रूप में किलबिला रहे थे, और मल-मूत्र में स्नान कर रहे थे। हम तो जानते हैं, आपको, मगर आप ही अपने को नहीं जानते। ____ कभी-कभी लक्ष्मी-पुत्रों में झगड़ा हो जाता है, तो कहते हैं-जगह की तंगी है, मैं कहाँ उ~-बैलूं। वे इतने पैर फैलाना चाहते हैं, कि मानो कुम्भकर्ण के शरीर से भी उनका शरीर बड़ा हो।
रेलवे में सफर करने वालों की मनोवृत्ति को आप मुझसे भी ज्यादा समझ सकते हैं। प्रायः प्रत्येक यात्री यही चाहता है, कि दूसरा कोई हमारे डिब्बे में न घुसने पाए। किसी को अत्यावश्यक कार्य है, या बीमारी का इलाज कराने जा रहा है, उसको भी लोग यही कहेंगे-जगह नहीं है। दिखता नहीं, क्या अन्धे हो।
जैनदर्शन उनसे कहता है ठीक है भाई, आज कहते हो, कि जगह नहीं है। और उस दिन क्या हालत थी, जब सुई की नोंक बराबर निगोद में अनन्त-अनन्त साथियों के साथ गुम-सुमं पड़े थे ? वहाँ जगह थी, और यहाँ जगह नहीं है? वहाँ कितनी जगह मिली थी आपको। ___जो मनुष्य अपनी पुरानी अवस्था को भूल जाता है, और अपने वर्तमान जीवन को ही सब-कुछ समझ लेता है, वह नास्तिक है, लेकिन इसके विपरीत जो अपने पूर्वापर जीवन का ख्याल रखता है, वह आस्तिक है। आज लोगों ने आस्तिकनास्तिक की व्याख्या बदल दी है। कहते हैं, जो वेद-पुराण को न माने वह नास्तिक है। किसी ने कह दिया—जैन नास्तिक हैं, और किसी ने कह दिया—वैष्णव नास्तिक हैं। किन्तु वास्तव में नास्तिक वही है जो
वर्तमान-दृष्टि-परो हि नास्तिकः। जिसकी दृष्टि वर्तमान में ही अटक गई है, जो मौजूदा हालत में ही अटक गया है, धन-वैभव में ही अटक गया है; जिसे अतीत का ख्याल नहीं, और अनागत की चिन्ता नहीं, वही नास्तिक है। मैं कहाँ से आया हूँ, और जब यह शरीर छूट जाएगा, तो कहाँ जाऊँगा, यह नहीं सोचता है जिसकी दृष्टि एकान्त वर्तमान पर ही है। कभी नरक में घूमता रहा है, कभी कीड़ा बन कर किलबिलाता रहा है, और कभी पक्षी बनकर घौंसले में बसेरा करता रहा है, किन्तु उस ओर दृष्टि नहीं जाती है, और
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