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|श्रोता आनन्द । ९९ सुस्ताने लगा। उसने देखा, कि सामने भीड़ में एक उपदेशक व्याख्यान दे रहे थे। उन्होंने कहा-संसार क्षण-भंगुर है। यह जवानी फूलों का रंग है, जो चार दिन चमकने के लिए है। और यह जीवन आत्मा-कल्याण करने के लिए मिला है। यह शरीर क्या है। लाश है, मिट्टी है। हड्डियों का ढाँचा है। इससे खेती की तो मोतियों की खेती होगी, नहीं तो यह लाश सड़ने के लिए है। __ श्रोताओं में वैराग्य की लहर दौड़ रही है। जनता बीच-बीच में जय-जयकार की ध्वनि करती है। इससे वक्ता का उत्साह बढ़ता है, और वह जोरों से व्याख्यान झाड़ने लगता है। इस प्रकार वक्ता श्रोताओं में और श्रोता वक्ता में जोश पैदा कर रहे थे।
राजकुमार दूर से ही यह सब सुन रहा था। सुनकर सोचने लगा_मैं अन्धेरी गलियों में भटक रहा था। वास्तव में, मैं मृत्यु के द्वार पर खड़ा हूँ। मौत मुझे पुकार रही है। मैंने अपने साथियों को फूंकते देखा है, और एक दिन मैं भी फूंक दिया जाऊँगा। इस जीवन का क्या मूल्य हासिल होगा।
इस प्रकार वैराग्य भाव आते ही राजकुमार ने किसी को घोड़ा दान कर दिया। कपड़े उतार फैंक दिए और हीरे-जवाहारात यों ही लुटा दिए। एक साधारण-सा वस्त्र पहन कर और संन्यासी बन कर घूमने लगा।
बारह वर्ष बीत गए। संयोगवश घूमते-घूमते संन्यासी राजकुमार उसी वृक्ष की छाया में आया। उसने देखा, वही सभा जुड़ी हुई है, और वक्ता उसी तरह गरज रहा है। वही बात दोहराई जा रही है-संसार क्षण-भंगुर है। हीरे-सी जिन्दगी को वासनाओं में मत लुटाओ। फिर वही जय-जयकार की ध्वनि गूंजने लगती है।
अब वह संन्यासी आगे बढ़ा और उस भीड़ में पहुँचकर एक-एक की छाती टटोलने लगा। लोगों ने कहा—क्या कर रहे हो।
संन्यासी ने धीमे से कहा—जरा देखने तो दो।
वह वक्ता के पास पहुँचा, और उसकी भी छाती टटोलने लगा। वक्ता ने कहाक्या कर रहे हो।
संन्यासी बोला-देख रहा हूँ, इस ढाँचे में कहीं हृदय भी है या नहीं।
संन्यासी फिर कहने लगा--बारह वर्ष पहले इसी जगह मैंने आपका प्रवचन सुन, था। प्रवचन तो क्या, उसकी कुछ कड़ियाँ सुनी थीं। उसी समय मैंने अपने जीवन का फैसला कर लिया। राजकुमार का रूप त्याग कर संन्यासी का रूप धारण किया। स्वस्व त्याग कर साधना के पथ पर चल पड़ा । इधर-उधर भ्रमण करते-करते, वैराग्य की ज्योति जगाते हुए, संयोगवश आज फिर यहाँ आ पहुँचा। देखता हूँ, वही पुरानी मूर्तियाँ बैठी हैं। हाँ, इन्हें मनुष्य न कह कर मूर्तियाँ ही कहना चाहिए। इन मूर्तियों
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