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[श्रोता आनन्द । ९५ मिला, तो उसे शिरोधार्य करते हुए वह जरा भी न हिचके। नहीं सोचा. कि मैं भारतवर्ष के बड़े-बड़े ब्राह्मणों में से हूँ, और मेरी कीर्ति एक कोने से दूसरे कोने तक फैली हुई है। अगर मैंने भगवान् के वचनों को स्वीकार कर लिया, तो मेरी प्रतिष्ठा के टुकड़े-टुकड़े हो जाएंगे। ___ सत्य की पूजा के लिए इतनी तैयारी होना साधारण बात नहीं है। मामूली आदमी भी जिसको थोड़े से लोग ही जानते-पहचानते हैं, अपनी प्रतिष्ठा का मोह त्याग नहीं पाता। उसे भी अपनी इज्जत का ख्याल आता है, और सत्य को ग्रहण करने में संकोच करता है। हमने कोई गलत काम कर लिया है, या हमसे कोई भूल हो गई है, और फिर सत्य हमारे सामने आता है, तो हिम्मत नहीं पड़ती, कि उसे खले दिल से स्वीकार करलें। मगर सत्य कहता है, कि मैं सामने आया ! मेरो पूजा करो। मेरे सामने तुम्हारी अपनी प्रतिष्ठा का कोई मूल्य नहीं है।
इस प्रकार सत्य सर्वोपरि होना चाहिए। हम क्या करते, और कहते आए हैं, यह विचारणीय बात नहीं है, इसका कोई महत्त्व नहीं है। विचारणीय यही है, कि सत्य क्या है और सत्य ही महत्त्वपूर्ण वस्तु है। सत्य के लिए सर्वस्व छोड़ देने को भी तैयार रहना चाहिए। जिसमें इतनी तैयारी है, वही सच्चा श्रोता बन सकता है। हमारे यहाँ यह सिद्धान्त आया है
त्यजेदेकं कुलस्यार्थे, ग्रामस्यार्थे कुलं त्यजेत्।
ग्रामं जनपदस्यार्थे, आत्मार्थे पृथिवीं त्यजेत्॥ आपके सामने ऐसी समस्या उपस्थित हो जाए, कि एक तरफ एक व्यक्ति है, और दूसरी तरफ खानदान। दोनों के हित परस्पर विरोधी मालम होते हैं। तब आपको क्या करना चाहिए। एक व्यक्ति का पक्ष लेना चाहिए या खानदान का। यहाँ बतलाया गया है, कि उस एक व्यक्ति के लिए सारे खानदान को बर्बाद मत करो। ___ दुर्योधन जब मक्कारियाँ करने लगा, तो बिदुर और भीष्म वगैरह धृतराष्ट्र के सामने पहुंचे। उसने कहा- क्या कर रहे हो ? दुर्योधन के रङ्ग-ढङ्ग नहीं देख रहे हो।
धृतराष्ट्र ने उत्तर दिया-दुर्योधन बहुत कुशील है, बहुत पाजी हो गया है। उसने मुझे बर्वाद कर दिया है। सब जगह मेरा मुँह काला हो गया है। मैं अपनी गलती स्वीकार करता हूँ।
तब बिदुर ने कहा तो ऐसे दुर्योधन का मोह छोड़ दीजिए। उसका परित्याग कर दीजिए। उसके पीछे क्यों सारे कुल की बर्वादी हो! दुर्योधन आपको नहीं तारेगा। वह हजारों वर्षों से चली आई प्रतिष्ठा पर पानी फेर देगा, और कुल को नष्ट कर देगा।
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