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|श्रोता आनन्द । ९३] कब बनेगी। रामायण पूरी हो गई, और उसके प्रश्न का समाधान कहीं न आया। जब पंडितजी ने रामायण की समाप्ति की घोषणा की, तो वह बोला_महाराज, चकमा क्यों देते हो। रामायण तो अधूरी रह गई है।
पण्डित जी ने पूछा—अरे, बाकी क्या रह गया।
वह बोला- बाकी कैसे नहीं रहा। आपने सीता के हरिण होने की बात तो बताई, पर यह कब बताया, कि वह फिर आदमी कब बनी।
पण्डित जी हैरान रह गए। बोले-सीता हरिण बनी या नहीं, मैं तो हरिण बन ही गया। मुझे आदमी बनाओगे, तब काम चलेगा। आधे मन से सुनने का परिणाम यही होता है। __मतलब यह, कि एक डुबकी लगा दी, और इधर-उघर भटक गए, फिर डुबकी लगाई, और फिर भटक गए, ऐसा करने में आनन्द नहीं आता है। आनन्द भगवान् के पास ऐसा श्रोता बन कर नहीं गया है। वह पूरी तैयारी करके भगवान् की दिव्यध्वनि सुनने आया है। मन को कहीं इधर-उधर बाँधकर नहीं आया है। प्रभु के चरणों में बैठा है, तो उसका मन दूसरी जगह नहीं भटक रहा है। वह एकनिष्ठ भाव से प्रभु की वाणी के साथ दौड़ रहा है। फिर आनन्द को आनन्द नहीं मिलेगा, तो किसे मिलेगा।
आनन्द प्रभु की वाणी सुनकर प्रसन्न हुआ और प्रसन्न हो यों ही नहीं चला गया. बल्कि उस पर आचरण करने को भी तैयार हो गया। वास्तव में सुनने का अर्थ भी यही है। घण्टों व्याख्यान सुना, उपदेश सुना और पल्ला झाड़कर चल दिए। न उस पर चिन्तन-मनन किया और न आचरण करने का प्रयत्न ही किया तो सुनने का अर्थ ही क्या निकला। असली आनन्द तो उस वाणी को ग्रहण करने में है। एक आदमी प्यासा हो, प्यास के मारे उसके प्राण-पखेरू उड़ने को तैयार हों, और वह गंगा के किनारे खड़ा होकर गंगा के दर्शन कर ले, तो क्या उसकी प्यास बुझ जाएगी। उसने गंगा के दर्शन करने का क्या लाभ उठाया। गंगा की शीतल और निर्मल धाराएँ बह रही हैं, तो उनमें से एक-दो चुल्लू जल उसके मुँह में जाने से ही उसकी प्यास बुझेगी। ऐसा किए बिना मिनट-मिनट में बहने वाला लाखों मन पानी भी उसकी प्यास नहीं बुझा सकता।
मेघ बरसता रहता है, धाराएँ बहती रहती हैं, फिर भी कोई व्यक्ति उसे ग्रहण न करे और मन में गदगद न हो तो क्या होगा। हमारे यहाँ मुद्गशैल पाषाण का जिक्र आता है। कितना ही पानी गिरे, उस पर कुछ असर नहीं होता। इसी प्रकार भगवान्
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