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श्रोता आनन्द
यह उपासकदशांग सूत्र है और आनन्द का वर्णन आपके सामने चल रहा है। आनन्द प्रभु के चरण-कमलों में पहुँच गया है और वन्दना - नमस्कार तथा सत्कारसम्मान करके बैठ गया है।
भगवान् के समक्ष उस समय बहुत बड़ी परिषद् बैठी थी । श्रमण भगवान् महावीर ने आनन्द गाथापति और उस परिषद् को धर्मोपदेश दिया । धर्मोपदेश सुनने के पश्चात् जिसे जो व्रत, नियम, प्रत्याख्यान आदि ग्रहण करते थे, सबने अपनी-अपनी शक्ति के अनुसार ग्रहण किए। फिर सब लोग अपने-अपने घर लौट गए।
उस समय अन्य साधकों ने भी व्रत - नियम आदि ग्रहण किए, परन्तु उनका विवरण हमारे सामने नहीं है। हमारे सामने तो आनन्द का वर्णन है। तीर्थंकर देव की वाणी का आनन्द पर क्या प्रभाव पड़ा - शास्त्रकार ने इसका खासा वर्णन किया है।
आनन्द ने भगवान् की वाणी का श्रवण किया। उसने उस दिव्य वाणी को केवल श्रवण ही नहीं किया, उसे हृदय में भी धारण किया । हृदय में धारण कर उसे अपार हर्ष हुआ, प्रसन्नता हुई और उसका रोम-रोम आनन्दानुभव कर पुलकित हो उठा।
यहाँ दो शब्द ध्यान देने योग्य हैं। आनन्द ने वाणी सुनी और फिर निश्चय किया । अकेला सुनना कान का काम है। शब्द आए, कान में पड़े और सुन लिए। इधर सुन लिए और उधर निकाल दिए। उन शब्दों के विषय में कोई विचार नहीं किया, चिन्तन नहीं किया और निश्चय की भावना नहीं लाई गई। इस प्रकार के श्रवण से आत्मकल्याण नहीं होता। जीवन में आनन्द का स्रोत नहीं फूटता और बंधन नहीं टूटते । इस प्रकार तो बहुत सुना है, किन्तु उससे प्रयोजन की सिद्धि नहीं हुई ।
यहाँ सुधर्मा स्वामी कहते हैं--आनन्द ने सुना और उस पर विचार किया। जब वह सुन रहा था, उसके मस्तिष्क में तब भी विचार चल रहे थे, और वह भगवान् के
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