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८८ । उपासक आनन्द वासना थी। पहले तुमने सहज भक्ति-भाव से वन्दना की थी। अब वह भाव नहीं रहा। अब तो नरक का भय तुमसे वंदना करा रहा है। अतएव तुम वन्दना करो या न करो, अब वह चमत्कार पैदा होने वाला नहीं है। ___यह बहुत बड़ी क्रान्ति है, इन्कलाब है। जैन धर्म जब किसी क्रिया-काण्ड को करने के लिए कहता है, तो साथ ही यह भी कहता है, कि स्वर्ग का मोह और नरक का भय मत रखो। केवल आत्मशुद्धि का ही उद्देश्य रखो। भय से या लोभ से करनी करोगे, तो उसका वह फल मिलने वाला नहीं है। भय या लोभ से की जाने वाली क्रिया में श्रद्धा उतनी नहीं रहती। तृष्णा और भीति उसे मलीन कर देती है। जैनधर्म न स्वर्ग के लालच से ही क्रिया करने को कहता है, और न नरक के भय से ही। वह तो निरीह भाव से क्रिया करने का विधान करता है। ___ अभिप्राय यह है, कि भगवान् को श्रेणिक ने न जाने कितनी बार वन्दना की होगी, किन्तु एक भी नरक का बन्धन नहीं टूटा; और आज वह सर्वसाधारण संतों की वन्दना करने चला, तो सभी बन्धन टूट गए, केवल पहले नरक का बन्धन रह गया। यह उल्टी बात कैसे हो गई ? ___आप आचार्य को वन्दना कर लेते हैं, किसी बड़े सन्त को भी वन्दना कर लेते हैं, किन्तु छोटे साधुओं की उपेक्षा कर जाते हैं। अगर आप साधुता की पूजा करते हैं, महाव्रतों की पूजा करते हैं, और आचार की पूजा करते हैं, तो क्या छोटे साधुओं में यह नहीं है। जो साधुता आचार्य में है वही छोटे साधु में भी है। उनके महाव्रतों में कोई न्यूनाधिकता नहीं है। फिर आपके मन में भेदभाव क्यों उत्पन्न होता है ? ___ मैं समझता हूँ, छोटों को वन्दना न करके और बड़ों को ही वन्दना करके अटक जाने में एक प्रकार का अहंकार है। सोने के सिंहासन वाले आए तो भगवान् को या आचार्य को वन्दना करके बैठ गए। छोटे साधुओं को वन्दना करने में अहंकार को ठेस पहुँचती है।
किन्तु याद रखिए, राजा श्रेणिक ने भगवान् को वन्दना की तो अहंकार नहीं मिटा, और जब इधर-उधर बैठी हुई अहिंसा और सत्य की मूर्तियों को वन्दना की, तो अहंकार गला, नम्रता आई और त्याग की एक ऐसी लहर पैदा हुई, ऐसी भावना जागी, कि छह नरकों के बन्धन टूट गए। ___अभिप्राय यह है, कि वन्दना का फल मुख्य रूप से इस बात पर निर्भर नहीं, कि वन्दनीय व्यक्ति कौन है; बल्कि इस बात पर निर्भर है, कि वन्दक किस श्रद्धा, नम्रता और निरभिमानता से वन्दना कर रहा है। श्रद्धा की कमी होने पर तीर्थंकर के चरणों में भी कोई-कोई कोरे रह जाते हैं। अतएव मुख्य बात वन्दना करने वाले की वृत्ति ही
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