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१८६ | उपासक आनन्द
होती है, जैसे कि दुकानदारों में कभी-कभी हो जाती है, कहीं हम पीछे न रह जाएँ । दूसरे आगे बढ़ते हैं, तो हम क्यों पीछे रहें। यह सोचकर अपनी शान के लिए तपस्या करते हैं, निर्जरा के लिए नहीं । मुझे किसी की मनोवृत्ति पर सीधा प्रहार नहीं करना है, किन्तु मैं चेतावनी देता हूँ, कि आप अपनी स्थिति पर स्वयं विचार करें। कल आप धर्म करते थे, तो आज वह क्यों समाप्त हो गया। धर्म का वह रंग अगर अन्दर से पैदा हुआ था, तो आज कहाँ चला गया।
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अभिप्राय यह है, कि साम्प्रदायिकता से नहीं, धार्मिकता से आत्मा का उत्थान होगा । मेरे - तेरे की भेदभावना दुनियादारी की चीजों में हो तो भले ही, धर्म के क्षेत्र में नहीं होनी चाहिए। धर्म के क्षेत्र में गुणों का ही मूल्य होना चाहिए। मारवाड़ में मुँह देखकर तिलक लगाने की कहावत प्रसिद्ध है। तिलक करेंगे, तो कर्त्तव्य के नाते नहीं करेंगे, मुँह देख-देखकर करेंगे। श्रद्धा-भावना नहीं होगी, और विचार नहीं होंगे, तो उस तिलक का कोई मूल्य नहीं है। उस तिलक में प्राणों का संचार और प्रेम की लहर पैदा होनी चाहिए। प्रेम की लहर नहीं है, तो वह तिलक बीच में यों ही लटक रहा है।
आप तपस्या करें, तो आत्म कल्याण के भाव से करें । आग्रह करने की मेरी वृत्ति नहीं है। इस रूप में आप तपस्या करें, तो भी ठीक है और न करें तो भी मुझे खेद नहीं है। मुझे कोई पत्री नहीं छपवानी है, कि इतनी हजार समायिक हुई; इतने उपवास और इतनी पंचरङ्गियाँ हुईं। यह तो आपकी भावना की बात है। आपके जीवन की तैयारी है, तो कीजिए, नहीं है तो मत कीजिए । तपस्या या उपवास, जो भी आपकी परम्परा है, उसका पालन आप अपने आप करेंगे, भावना से करेंगे, तब तो वह दूध है, और मैंने माँग की है और आपने पूर्ण की, तो वह पानी बन गई ! मैंने जोर दिया, दबाव डाला, और बलात् करवाया तो वह रक्त बन गई। गोरखनाथ ने कहा है:
आप दिया जो दूध बराबर, माँग लिया सो पानी ।
छीने-झपटे रक्त बराबर, गोरख बोले बानी ||
मैं छीना-झपटी नहीं करूँगा। मैं तो आपका ध्यान इस ओर आकर्षित करना चाहता हूँ, कि साम्प्रदायिक प्रतिस्पर्द्धा ने हमें कहाँ तक प्रभावित कर लिया है। आप साम्प्रदायिकता की क्षुद्र संकीर्णता को त्याग कर धार्मिकता के विशाल प्रांगण में आएँगे और प्रत्येक वस्तु पर उसके गुण-अवगुण की दृष्टि से ही विचार करने का अभ्यास करेंगे, तो आपका कल्याण होगा, और शासन का भी उद्योत होगा ।
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