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वन्दना | ८७) मैं यह कह रहा था, कि वन्दना भी साम्प्रदायिकता के आधार पर नहीं, आचार के आधार पर होनी चाहिए। दिखाने के लिए नहीं, प्रेम की प्रेरणा से होनी चाहिए। देवता, तीर्थंकर भगवान् को अपने स्थान से वन्दना करते हैं, तो भी भावनापूर्वक होने से वह स्वीकृत हो जाती है। यदि सामने आकर और सिर झुकाकर भी वन्दना की, परन्तु भावना नहीं हुई, तो उसका कोई महत्त्व नहीं है।
आनन्द ने भगवान् की वन्दना की तो किस रूप में की। उसने प्रभु के सन्मुख जाकर मस्तक झुकाया और साथ ही अपनी भावना और श्रद्धा भी अर्पित कर दी। इस रूप में उसका भगवान् के साथ जो सम्बन्ध जुड़ा था, वह जीवन पर्यन्त नहीं टूटा । उस वन्दना में भावना और श्रद्धा की मजबूती थी । वहाँ प्रेम की दृष्टि थी । लोक दिखावा नहीं था, साम्प्रदायिकता भी नहीं थी ।
वन्दना करने से कर्मों के बंधन टूटते हैं। चाहे तीर्थंकर की वन्दना करो चाहे छोटे से छोटे साधु को, कर्मों की निर्जरा होती ही है।
एक भाई ने तर्क किया है— तीर्थंकर को वन्दना करने से अधिक लाभ होता है, और साधु को वन्दना करने से कम लाभ होता है । इस अवसर पर मैं आपको राजा श्रेणिक की याद दिलाना चाहता हूँ । राजा श्रेणिक भगवान् के पास जाते थे, और हमेशा जाया करते थे । कितनी ही बार उन्होंने भगवान् को वन्दना की होगी। किन्तु एक दिन श्रेणिक ने सोचा-मैं भगवान् को और गणधरों को वन्दन करके बैठ जाता हूँ। आज सब साधुओं को वन्दन करूँ। और यह सोच कर वह वन्दन करने को चले । जो साधु पहले श्रेणिक के यहाँ नौकर-चाकर रहे होंगे, उनको भी उन्होंने उसी भाव से वन्दना की। वह वन्दना करते-करते चले गए-दूर तक चले गए। पसीना आ गया। जब आगे बढ़ने की सामर्थ्य न रही, तो अपनी जगह आकर बैठ गए।
राजा श्रेणिक अपनी जगह पर बैठ गए, और उनकी भावना गौतम की पैनी दृष्टि से छिपी न रही। उन्होंने भगवान् से पूछा- आज राज के चेहरे पर ज्योति दीप रही है ! आज इन्होंने सब को वन्दना की है, और अपने अहंकार को तोड़ दिया है । तो हे भगवन् ! इस वन्दना का इन्हें क्या फल होगा ?
भगवान् ने कहा- इन्होंने सातवें नरक का बन्धन बाँध लिया था । वह बन्धन टूटते- टूटते पहले नरक का रह गया है । अर्थात् इन्हें ८४ हजार वर्ष तक ही नरक का दुःख देखना पड़ेगा।
भगवान् का उत्तर श्रेणिक ने भी सुना। उनके मन में आया- मैं इसे भी क्यों न तोड़ दूँ । ज्यों ही उस बंधन को तोड़ने के लिए उठे, कि भगवान् ने कहा- अब यह बात नहीं होने की। पहले तुम्हारे मन में न नरक-स्वर्ग की भावना थी, न संसार की
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