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वन्दना १८५
परवाह करता है। हम अपना समग्र जीवन जिसके चरणों में अर्पित कर रहे हैं, उसमें वह ज्योति है अथवा नहीं, कि वह हमारे जीवन को भी उद्भासित कर सके ? यह प्रश्न ही आज किसी के अन्तःकरण में नहीं उठता। बस, जो मेरे गुरु का चेला है, उसी को मेरी वन्दना — इसी ममत्व के भावों से प्रेरति होकर सिर झुका लिया जाता है ।
मस्तक बड़ी चीज है। हजारों, लाखों और करोड़ों वर्षों से सिर की रक्षा के लिए दुनिया से लड़ते आए हैं। जब मस्तक को अर्पण किया जाए, तब देख लेना चाहिए, कि जिसे मस्तक अर्पण कर रहे हैं, उसमें आचार का अंश है या नहीं ।
सम्प्रदाय को वन्दना का गज मत बनाइए । जो अमुक सम्प्रदाय का है, वह कैसा भी क्यों न हो, वन्दनीय है; उसमें चरित्र है, तो अच्छा है और नहीं है तो भी अच्छा है; यह मत सोचिए। यह भी मत सोचिए, किसी में कितना ही ऊँचा चारित्र क्यों न हो, वह हमारे सम्प्रदाय का नहीं है और इस कारण वन्दनीय भी नहीं है । जो जिनवर की आज्ञा के अनुसार चलते हैं, चारित्र का पालन करते हैं जो अपनी आत्मा को ऊँची उठा चुके हैं, और जो अपने जीवन को अपने आदर्श या उपदेश से ऊँचा उठा सकते हैं, वे सब वन्दनीय हैं; फिर चाहे वह किसी भी सम्प्रदाय के क्यों न हों। वन्दना आचार की दृष्टि से होनी चाहिए, परम्परा की दृष्टि से नहीं । सम्प्रदाय का मोह न रखकर वन्दन कीजिए। दूसरे के सम्प्रदाय के अच्छे से अच्छे संयम-परायण सन्त की वन्दना करना, इस आधार पर मत छोड़ दीजिए, कि वह आप के सम्प्रदाय के नहीं ।
जहाँ तक मैंने समझा है, वन्दना करने का यही शास्त्रानुमोदित ढङ्ग है; और प्राचीन काल में यही ढङ्ग प्रचलित भी था । उस समय के लोग सदाचार की बात ही मालूम करते थे, सम्प्रदाय की दृष्टि से विचार नहीं करते थे ।
एक सज्जन मेरे पास आए। बातचीत हुई। कहने लगे- पहले अलग-अलग सम्प्रदायों के चौमासे होते थे, तो हजारों रुपये खर्च हो जाते थे । दया होती थी, समायिक होती थी, और पंचरंगी होती थी । इस वर्ष तो सारा सावन गुजर गया है, और पंचरङ्गी ही नहीं हुई। यह तो होनी चाहिए ।
मैं सोचता हूँ — पंचरङ्गी तो करते हो, पहले एक रंग तो कर लो। एक रंग होने के बाद पंचरङ्गी में आनन्द होगा ।
फिर सोचता हूँ — एक-एक पक्ष के चौमासे में पंचरङ्गी होती थी, और अब नहीं हो रही है, इसका वास्तविक कारण क्या है? यदि तपस्या और कर्म - निर्जरा की भावना से पंचरङ्गी होती, तो अब भी क्यों न होती । जब एक-एक पक्ष के होकर पंचरङ्गी करते हैं, तो धर्म की भावना नहीं, कम्पीटीशन - प्रतिस्पर्द्धा की भावना प्रबल
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