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८४। उपासक आनन्द । भावना ही है। लोग कहते हैं--अमुक का सिर फिर गया है। यहाँ भी सिर का अर्थ विचार ही होता है। विचार उलट-पलट जाते हैं, मस्तक तो ज्यों का त्यों बना रहता है।
सिर देने का अर्थ विचारों और भावनाओं को अनुरूप बनाना है। सिर के अन्दर यदि भावनाओं की चमक नहीं है, तो सिर का कोई मूल्य नहीं है। हजारों वर्षों से वन्दन हो रहा है, किन्तु जहाँ भावनाओं का अर्पण नहीं, वहाँ वन्दन का कोई वास्तविक मूल्य नहीं । वन्दन तो भावनाओं द्वारा ही होना चाहिए। जहाँ वन्द्य और वन्दक में विचार की एकता है, भावना की अनुरूपता है; वही भाव-वन्दन है। यह नहीं है, तो वह द्रव्य-वन्दन मात्र है—हड्डियों के ढांचों को झुकाना भर है।
सिर झुक रहा है और 'दयापालों' की ध्वनि गूंज रही है, किन्तु धर्म का उपदेश ठुकराया जा रहा है, और धर्म की आज्ञाओं का पालन नहीं हो रहा है। वह हवा में ही उड़ाई जा रही हैं। परिणाम यह होता है, कि जीवन का कल्याण और विकास नहीं हो पाता है। अतएव आवश्यक यही है, कि जीवन में भावनाओं का प्रकाश हो और प्रत्येक क्रिया में भावना की ज्योति जग-मगाती हो।
साधु अपने गुरु को दस-बीस वर्षों तक वन्दन करता है, सिर झुकाता है, और जब कोई महत्त्वपूर्ण बात आ जाती है, आज्ञा का पालन करने का विशेष अवसर आता है, तो चेला किधर हो जाता है, और गुरुजी किधर हो जाते हैं। यह सब क्या है ? यह सब द्रव्य है इसमें भाव नहीं है, भावना नहीं है।
आप गृहस्थ लोग भी क्या करते हैं? जब गुरु देश और काल की दृष्टि से, जीवन-विकास का कोई महत्त्वपूर्ण संदेश देते हैं, तो आप अपनी रूढ़ियों और परम्पराओं के अधीन रहकर, उसे ठुकरा देते हैं, उसका तिरस्कार कर देते हैं। जहाँ गुरु की सूचनाओं का तिरस्कार होता है, अवज्ञा होती है, और गुरु के संदेश पैरों से कुचले जाते हैं, वहाँ सिर को उनके चरणों में रख देने पर भी क्या लाभ हो सकता है? यह तो केवल यांत्रिक क्रिया है। मशीन की तरह शरीर से चेष्टा करना है। असली वन्दन तो गुरु की भावना में अपनी भावनाओं को मिला देना ही है।
हम लोग सम्प्रदायों में बँट गए हैं। गिरोह बन गए हैं वन्दन करने चले तो अपना गज बना लिया है, और उसी गज से नापना शुरू ६ दिया है। यह अमुक सम्प्रदाय का है या नहीं, यह देखा जाता है, और अमुक सम्प्रदाय का है, तो उसे वन्दना कर ली जाती है। इस प्रकार वन्दना का गज सम्प्रदाय-वशेष बन गया है। किन्तु वास्तव में वन्दना का गज है..-चरित्र। इस गज से कौन नापता है? जिसे वन्दना की जा रही है, उसमें त्याग-वैराग्य है या नहीं, चारित्र है या नहीं, इसकी आज कौन
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