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1८२ । उपासक आनन्द ।
मैंने पुराण और उपनिषद् भी देखे हैं। उनमें भी तीन बार प्रदक्षिणा करने का उल्लेख मिलता है। ____ अब हमारे यहाँ यह रिवाज नहीं रहा। अब गुरुजी बीच में नहीं बैठते और जब बीच में नहीं बैठते तो भक्त तीन बार प्रदक्षिणा करे भी तो कैसे करे ? और फिर भक्त भी उतावले हो गए हैं। कौन तीन बार परिक्रमा करने में समय व्यय करे। तो प्रदक्षिणा का संक्षिप्त रूप निकाल लिया गया कि तीन बार हाथ घुमा लिए, और बस, तीन परिक्रमाएँ हो गईं।
आपको ध्यान में रखना चाहिए, कि हजारों वर्षों पहले जो परम्पराएँ प्रचलित थीं, वे सभी उसी रूप में ज्यों ही त्यों नहीं रह गई हैं। उनमें परिवर्तन हो गया है। इतने लम्बे काल में कुछ न कुछ परिवर्तन आ ही जाता है, और बड़ी विधियाँ छोटी हो जाती हैं। ___ एक उदाहरण लीजिए। किसी ने मुझसे कहा-आप यह 'तिक्खुत्तो' कहाँ से लाए ? गुरु को तो 'इच्छामि खमासमणो' से वन्दना करना चाहिए, क्योंकि तीसरा आवश्यक गुरु-वन्दना है। पहला आवश्यक सामायिक, दूसरा चतुर्विंशतिस्तव और तीसरा गुरुवन्दन है। वन्दना में 'इच्छामि खमासमणो' ही पढ़ते हैं। इसका अर्थ यही हुआ, कि वन्दना 'इच्छामि खमासमणो के पाठ से ही करना चाहिए। ____ मैंने उनसे कहा—बात ठीक है और पहले ऐसा ही होता था। यही विधि प्रचलित थी। परन्तु आपने क्या किया है ? आप 'इच्छामि खमासमणो' से शुरू करके और बीच में उसका संक्षिप्तीकरण करने के लिए 'जाव' को डाल कर एक दम ही अखिरी मंजिल पर पहुँच जाते हैं, और बीच के सारे पाठ को गुम कर देते हैं। कहींकहीं तो टब्बों में सारा ही पाठ गायब कर दिया है। तो आपने यह 'जाव' कहाँ से लगा दिया ? आप हों या हम हों, सच्चाई सबको स्वीकार करनी चाहिए। सब पर काल का प्रभाव पड़ता है। परिस्थितियों ने समेट दिया है। परिस्थितियों ने आपको भी प्रभावित किया है, और हमको भी प्रभावित किया है। आप मन्दिरों में तो प्रदक्षिणा दे रहे हैं, किन्तु गुरु की प्रदक्षिणा कहाँ चली गई है ?
आशय यह है, कि कोई भी धर्म या सम्प्रदाय हो, देश, काल और परिस्थिति के प्रभाव से वह अछूता नहीं रह सकता। सब पर प्रभाव पड़ता है। इसी प्रभाव के कारण प्रदक्षिणा की विधि भी छोटी पड़ गई, और सिर्फ हाथों की प्रदक्षिणा रह गई। आज तो ऐसा लगता है, कि हाथों की प्रदक्षिणा भी रह जाए तो गनीमत समझिए। पुराने-पुराने लोग हाथों की प्रदक्षिणा को कायम रखे हुए हैं, आगे आने वाली संतानों में तो इसका रहना भी मुश्किल है। आज भी प्रायः
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