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८० । उपासक आनन्द ।
घास की नोंक पर जितना अन्न और पानी आवे, उतना अन्न-पानी खा-पी कर फिर महीने भर की तपस्या करे; तो इतना बड़ा तप भी विशुद्ध धर्म के सोलहवें भाग की भी बराबरी नहीं कर सकता। विशुद्ध धर्म तप से भी बड़ा है।
इन्द्र के कथन के उत्तर में नमि राजर्षि ने ऐसा कहा। दोनों के कथन पर आप ध्यान से विचार करें। टीका-कारों के अनुसार इन्द्र पाँच अणुव्रत आदि गृहस्थ धर्म का पालन करने की बात कहता है, और उस कथन के उत्तर में नमि राजर्षि कहते हैं, कि बड़े से बड़ा बाल-तप भी विशुद्ध धर्म के सोलहवें भाग की बराबरी नहीं कर सकता।
इस उत्तर से तो ऐसा जान पड़ता है, कि नमि राजर्षि पाँच अणखत आदि को बाल-तप समझते हैं। किन्तु जैनधर्म उसे बाल-तप नहीं समझता।
तो फिर राजर्षि का यह कैसा उत्तर है। इन्द्र ने कहा, कि साधु मत बनो, गृहस्थधर्म का पालन करो और उसके उत्तर में नमि कहते हैं, कि बालतप करने से कल्याण नहीं होता-बाल-तपस्वी का बड़े से बड़ा तप भी धर्म का अंश नहीं है।
तब या तो यही मानना होगा, कि नमि राजर्षि गृहस्थ-धर्म को बाल-तप समझते हैं, या यह समझना होगा, कि उन्होंने इन्द्र के कथन का ठीक-ठीक उत्तर नहीं दिया। उन्होंने, कहे खेत की और सुने खलिहान की वाली उक्ति चरितार्थ की है। प्रश्न कुछ और है, उत्तर कुछ और है। प्रश्न के साथ उत्तर का कोई सम्बन्ध नहीं है। इन्द्र गृहस्थधर्म पालन करने की बात कहता है, उसके उत्तर में कुछ भी न कह कर वे बाल-तप पर बरस पड़ते हैं। ___ मैं समझता हूँ, इसमें नमि राजर्षि का कोई दोष नहीं है। न यही मानना योग्य है, कि वे गृहस्थधर्म को बाल-तपस्या समझते हैं, और न यही समझना चाहिए, कि उन्होंने उत्तर में अप्रस्तुत बात कही है।
तो फिर इस परस्पर असंगत प्रश्नोत्तर की संगति किस प्रकार बैठ सकती है ? आइए, इस पर विचार करें।
आप सुन चुके हैं, मूल में गृहस्थधर्म की कोई बात नहीं है। वहाँ तो सिर्फ 'पोसह' शब्द आया है और टीका-कारों ने ही 'पोसह' का अर्थ गृहस्थधर्म कर दिया है। 'पोसह' शब्द को देखते ही उन्होंने समझ लिया, कि यह तो जैन-धर्म का ही 'पोसह' है। इसी कारण यहाँ प्रश्न और उत्तर में असंगति मालूम होती है। उन्होंने
वैदिक धर्म का अध्ययन किया होता, और बौद्धधर्म का भी कुछ अध्ययन किया होता, तो ज्ञात हो जाता, कि पोसह (उपाषथ, पोषद) शब्द का व्यवहार उन परम्पराओं में भी होता है। इन्द्र का कथन उसी पोषध के खयाल से है, अर्थात्
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