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२० । उपासक आनन्द
महावीर स्वामी साधु बने और साधु बने तो भेष बदलने वाले साधु नहीं, जीवन बदलने वाले साधु बने। उन्होंने सोने के महलों को छोड़ा, तो फिर पल भर के लिए भी उनकी ओर नहीं झाँका । वे संसार के सर्वोत्तम वैभव को ठुकरा कर आगे आए। तीस वर्ष तक का जीवन उन्होंने गृहस्थावस्था में बिताया, पर जब उसका त्याग किया, तो सर्वतोभावेन त्याग किया। उन्होंने अपने जीवन के लिए जो राह चुनी, उस पर अग्रसर होते ही चले गए, पल-पल आगे ही बढ़ते गए। वह अपने जीवन का विकास करने के लिए अपने विकारों और अपनी वासनाओं से लड़े और ऐसे लड़े, कि उन्हें खदेड़ कर ही दूर हटाकर ही दम लिया। उन्होंने जीवन की दुर्बलताओं को और बुराइयों को चुनौती दी और उन्हें पराजित भी किया। केवल ज्ञान और केवल दर्शन पाया और तब भगवान् का महान् पद भी प्राप्त किया। उन्हें भगवत्तेज की प्राप्ति हुई ।
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श्रमण बनने के बाद और कैवल्य प्राप्ति से पूर्व की भगवान् महावीर की साधना की कहानी बड़ी ही रोमांचकारिणी है । उसका आभास हमें शास्त्रों से मिलता है। जब हम उसे पढ़ते हैं तो हृदय सन्न रह जाता है । जिन कथाओं, परीषहों और उपसर्गों के पढ़ने मात्र से हमारे रोंगटे खड़े हो जाते हैं, उन सब को उस महान आत्मा ने असाधारण दृढ़ता के साथ सहन किया । देवों, मनुष्यों और पशुओं द्वारा पहुँचाई गई, कोई भी पीड़ा उन्हें अपनी साधना से विरत न कर सकी । यही क्यों, कहना यों चाहिए कि ज्यों-ज्यों बाधाएँ और पीड़ाएँ उनके समीप आईं, तो उन पीड़ाओं और बाधाओं के रूप में उन्होंने अपनी सिद्धि सन्निकट आई समझी, उन्हें उतना ही बल प्राप्त होता गया ।
हम थोड़ी देर ध्यान लगाते हैं, दो चार 'लोगस्स' की बात जाने दीजिए, एक लोगस्स का कायोत्सर्ग करते हैं और उपसर्ग करने वाले कोई भूत, प्रेत, सिंह या भालू नहीं; किन्तु मच्छर आते हैं, और वे मच्छर कुछ हमें समूचा निगलने के लिए नहीं आते, केवल एक बूँद रक्त की पाने और अपनी भूख मिटाने के लिए आते हैं। मगर ज्योंही मच्छर का डंक हमारे शरीर में लगता है, कि हम लोगस्स का ध्यान करना ही भूल जाते हैं और चमड़ी सिकोड़ने लगते हैं ! सारा चिन्तन ऊपर आ जाता है और जल्दी-जल्दी पाठ बोलने लगते हैं ! कितना क्षुद्रकाय बेचारा मच्छर, हाथ की उँगली लग जाए तो प्राण छोड़ दे। पूँजनी दया के लिए है और उसे जल्दी से फेर दिया जाए तो भी मर जाए। इतने तुच्छ प्राणी के दंश को भी हम सहन नहीं कर सकते। यह दशा हमारी है ।
और उस महान् आत्मा को संगम जैसे देवता डिगाने आए, और वह भी चुनौती लेंकर आए, संकल्प करके आए, कि डिगाएँगे, बिना डिगाए नहीं रहेंगे, जरूर पथभ्रष्ट
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