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समवसरण में प्रवेश
यह उपासकदशाँग सूत्र है और आनन्द का वर्णन आपके समाने चल रहा है। आनन्द उत्कट भक्ति के वशीभूत हुआ प्रभु-दर्शन की बलवती इच्छा को अपने मन में बसाए भगवान् महावीर के पास जा रहा है । वह अपार धन राशि का स्वामी है; मगर उसे उस बात की लेशमात्र भी चिन्ता नहीं है, कि इतने बड़े सेठ को पैदल जाते देख लोग क्या कहेंगे, और वह पैदल ही भगवान् के स्थान की ओर चला जा रहा है । वह सोचता है, शुभ कार्य में लज्जा कैसी ! लज्जा तो पाप कर्म करते समय होनी चाहिए, वह भगवान् की वंदना करने के लिए पैदल ही चला जा रहा है। अपने लिए वह तो इसे गौरव की बात समझ रहा है—क्योंकि वह जानता है, सन्तों के पास इसी प्रकार जाना चाहिए । इसीलिए उसे इस बात की परवाह नहीं है कि कोई भी इस गौरव योग्य बात के लिए उसकी निन्दा करेगा। वह सोचता है, कोई निन्दा करेगा, तो करने दो, इसमें उसका बिगड़ता भी क्या है ? वह कोई बुरा काम थोड़े ही कर रहा है, और इतना सोच लेना ही उसके सन्तोष के लिए पर्याप्त है । वह भक्ति-विभोर हुआ, पैदल ही प्रभु की ओर चला जा रहा है। यह एक प्रकार का विनय धर्म है।
अजी, कोई क्या कहेगा ? इस प्रकार की भावना का भूत बहुतों के सिर पर सवार रहता है। और इस भूत की यह विशेषता है, कि वह मनुष्य को अधिकांश में भले काम करने से रोकता है, बुरे काम करने से नहीं। यह एक प्रकार की मानसिक दुर्बलता है। तुम दूसरों की आँखों से देखकर क्यों चलना चाहते हो? दूसरों के दिमाग से सोचकर क्यों निश्चय करना चाहते हो? ऐसा करते हो, तो तुम्हारी आँखें और तुम्हारा दिमाग किस काम का है? तुमने किसी भी शुभ कार्य को करने का अगर विचार कर लिया है, और तुम्हारे निर्मल अन्तःकरण ने उसे शुभ मान लिया है, तो दूसरों का ख्याल क्यों करते हो? क्यों सोचते हो, कि यह क्या कहेंगे और वह क्या कहेंगे? अगर तुम्हें अपने दिल और दिमाग पर भरोसा है, तो तुम वही काम करो, जिसे करने के लिए तुम्हारा मस्तिष्क तुमसे कहता है और ह्रदय करने के लिए प्रेरित करता है । अपने विवेक से कार्य करो।
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