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७२ । उपासक आनन्द । पंखा देखा। जब पास में कुछ दिखाई न दिया तो पिता की भक्ति में बहने वाले पुत्र ने अपना जूता उठाया और उसी से हवा करने लगा। यह भक्ति नहीं, विवेकहीनता है।
'अरे. यह क्या कर रहा है?' ‘पिता की सेवा कर रहा हूँ, साहब, भक्ति कर रहा हूँ।'
आप इस पितृ-भक्त पुत्र के विषय में क्या कहते हैं? और उसका पिता क्या कहेगा ? क्या इस भक्ति में रस है ? क्या पिता के मन में पुत्र की इस भक्ति से आनन्द की लहर उठेगी ? पिता प्रसन्न होगा या नाराज।
भक्ति की जाए, पर भक्ति के साधनों में विवेक तो होना चाहिए। पंखा किया जाता, तो भक्ति समझ में आती, परन्तु जो चार कदम चलकर पंखा नहीं ला सका, और पास में पड़े जूते से हवा करने लगा, उस पुत्र की भक्ति सच्ची भक्ति नहीं समझी जा सकती। यह भक्ति नहीं, भक्ति का परिहास है।
तुम्हें भगवत्-पूजा का मार्ग अपनाना है, तो बाहर के फूलों को रहने दो। जो फूल अभी अभी-अपनी कलियों में खिले हैं, और सूर्य की पहली किरण में ही सो कर उठे हैं, उनकी गर्दन मत तोड़ो। उनको छुओ मत, उनमें प्राण हैं, जीवन है। वे संसार को सौरभ देने के लिए आए हैं, अत: जहाँ हैं वहीं रहने दो। तुम्हें पूजा के लिए फूल चाहिए, तो वे और हैं। उन्हें अपने मन के बाग में ही कहीं खोजो और मन के मन्दिर में जो भगवान् विराजमान हैं, उन पर चढ़ा दो। उन्हें किस रूप में चढ़ाना है, वे भावों के फूल हैं...
अहिंसा सत्यनस्तेयं, ब्रह्मचर्य-सम-सङ्गता। गुरु-भक्तिस्तयोः ज्ञानं, सत्पुष्पाणि प्रचक्षते।।
हरिभद्रीय अष्टक यह हरिभद्र सूरि के वचन हैं। उनकी वाणी जीवन देने वाली है। वे इसी राजस्थानवर्ती पर्वतीय प्रान्त वीर-भूमि मेवाड़ के थे। उन्होंने कहा है—प्रभु के दर्शन करने के लिए फूल तो चाहिए, किन्तु वे फूल कैसे हों ? वे फूल अहिंसा के होने चाहिए, सत्य के, अस्तेय के, ब्रह्मचर्य के और अनासक्ति के पुष्प होने चाहिए। भक्ति की लहर पैदा होनी चाहिए, कितने ही संकट पड़ें, तो उन्हें सहन करने की क्षमता होनी चाहिए, ज्ञान का और प्रेम का दीपक जलना चाहिए। यही प्रभु की पूजा के लिए श्रेष्ठ फूल हैं। ये वे फूल हैं, जो अनन्त काल से जीवन में महक उड़ेल रहे हैं। जो तोड़े, और मुरझा गए। यह अहिंसा सत्य, दया, ज्ञान और विवेक-विचार के
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