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वन्दना
यह उपासकदशांग सूत्र है, और आनन्द का वर्णन आपके सामने चल रहा है। आप सुन चुके हैं, कि भगवान् महावीर वाणिज्यग्राम नगर के बाहर पधारे हैं। आनन्द भगवान् के दर्शन करने और उनका प्रवचन सुनने के लिए समवसरण में पहुँच गया। वहाँ पहुँच कर उसने क्या किया, सूत्रकार के शब्दों में ही सुनिए
'जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करे । करेत्ता वंदइ, नमंसइ, जाव पञ्जुवासइ ।'
आनन्द जब भगवान् के समवसरण में पहुँचा, और जब भगवान् के चरणों में पहुँच गया, तो उसने तीन बार दाहिने हाथ की ओर से प्रारम्भ करके भगवान् की प्रदक्षिणा की। वंदना की, नमस्कार किया, सत्कार-सम्मान दिया, और पावन चरणों में नमस्कार करके फिर उपासना करने लगा ।
एक भाई का प्रश्न है कि आनन्द यदि जैन नहीं था, तो उसने 'तिक्खुत्तो' का पाठ कैसे जाना ? प्रश्न ठीक किया गया है, और उसका समाधान भी करना चाहिए ।
आनन्द जैन नहीं था, फिर भी उसका वन्दना करने का ढंग वही है, इस कारण यह प्रश्न उपस्थित हुआ है, कि आनन्द को जैन ही क्यों न समझा जाए ? इस प्रश्न का निपटारा करने के लिए हमें शकडाल - पुत्र के वर्णन की ओर ध्यान देना चाहिए। उसके वर्णन की ओर इसलिए कि वह निश्चित रूप से जैन नहीं था । वह गोशालक का अनुयायी था, यह बात निर्विवाद रूप से प्रसिद्ध है। जब वह भगवान् के पास पहुँचता है, तब इसी विधि से वंदना करता है, तथा अन्य भक्तों के विषय में भी यही पाठ आता है।
इसका अभिप्राय यह हुआ कि चाहे कोई जैन गृहस्थ हो या जैनेतर हो, सब ने इसी विधि से वन्दन - नमस्कार किया है। अतएव आनन्द के वन्दन - नमस्कार में ऐसी कोई खास बात नहीं है, जिससे उसके जैन होने का अनुमान किया जा सके। जिनका उपासक जैन होता है। मूल में आनन्द जिनका उपासक नहीं था ।
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