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७४ | उपासक आनन्द
संकेत पाते ही अर्जुन ने धुनष-वाण लिया और सिर के दोनों तरफ बाण मारकर तकिया बना दिया। भीष्म ने उस पर सिर रखकर कहा, भीष्म के लिए यही तकिया उपयुक्त है। तुम देख रहे हो, कि मेरे शरीर में वाण चुभ रहे हैं, मेरी आत्मा वीरगति की प्रतीक्षा में है, एक सच्चा क्षत्रिय युद्ध में लड़ते-लड़ते अपनी मृत्यु का आह्वान कर रहा है। तो उसके लिए वाणों की शय्या के साथ वाणों का ही तकिया भी चाहिए। कुछ क्षण रुककर भीष्म ने फिर कहा-दुर्योधन ! तुम अब भी मर्यादा का उल्लंघन कर रहे हो, और अर्जुन अब भी मर्यादा के भीतर है। वह योग्य-अयोग्य को समझता है, किन्तु तुम्हारे अन्दर यह चीज मुझे नहीं मिलती। तुम्हें कब विवेक प्राप्त होगा ? जीवन में विवेक का मिलना अत्यन्त कठिन है। ___ मेरा अभिप्राय यह है, कि भीष्म ने तकिया माँगा तो अर्जुन ने उनकी मांग पूरी की। दुर्योधन आदि ने जो तकिये लाकर दिए वे मर्यादा के अनुरूप नहीं थे। वाण तो चुभने वाले ही थे, किन्तु वाणों की शय्या की मर्यादा यही है, कि तकिया भी वाणों का हो। इसी में उस शय्या का गौरव था। अर्जुन ने वाण-शय्या की मर्यादा को समझा
और उसे पूरा भी किया। अवसर की पहचान करना, आसान काम नहीं है। __ हम समझते हैं, जो गृहस्थ अपनी मर्यादाओं की समझेगा और उनके अनुसार व्यवहार करेगा, वही सच्चा गृहस्थ है, और अपनी मर्यादाओं को जानने वाला साधु ही सच्चा साधु है। मर्यादा-हीन जीवन, जीवन नहीं।
क्या भगवान् के पास और क्या सन्त के पास जाना हो, तो देखो कि उनकी क्याक्या मर्यादाएँ हैं। अगर उन मर्यादाओं का ठीक-ठीक पालन करोगे, तो सच्चे उपासक, पुजारी या भक्त कहला सकोगे। उनकी मर्यादाओं के अनुसार अहिंसा, सत्य आदि के पुष्प लेकर उनके चरणों में पहुँचोगे, तो सच्चे भक्त बनोगे। भक्ति में भी मर्यादा आवश्यक है।
प्रभु के पास जाते समय केवल सचित्त द्रव्यों का त्याग करने से से काम नहीं चलेगा, अहंकार का भी त्याग करना होगा और भक्त के योग्य नम्रता भी धारण करनी होगी। भगवान् के समवसरण की भी एक मर्यादा, एक नियम है। __ भगवान् के समवसरण में जाने की क्या मर्यादाएँ हैं, प्रसंग पाकर मैंने संक्षेप में यह बतला दिया है। प्रस्तुत सूत्र में इन मर्यादाओं के सम्बन्ध में उल्लेख न होने पर भी यही मानना होगा, आनन्द ने समवसरण में प्रवेश करते समय वहाँ की मर्यादाओं
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