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वन्दना । ७५ सूत्र के मूलपाठ में बतलाया है-आनन्द ने भगवान् के पास पहुँचकर तीन बार प्रदक्षिणा की, नमस्कार किया, भगवान् के चरणों में बैठ गया और उपासना करने लगा।
इस वर्णन में कोई ऐसी असाधारण बात नहीं है, जिसका सम्बन्ध किसी खास धर्म के ही साथ हो। भारतवर्ष के जितने भी धर्म हैं, उन सब में लगभग यही परिपाटी है। जैनधर्म को देखें, बौद्धधर्म को देखें अथवा वैदिकधर्म को देखें, सबमें यही चीज है। किसी भी धर्म के महापुरुष के सामने जाकर कोई भी शिष्ट, विवेकवान् और मर्यादा को समझने वाला पुरुष ऐसा ही करता है। ____ अभिप्राय यह है, कि नमस्कार करने की पद्धति का धर्म के साथ सम्बन्ध नहीं है, किन्तु उसका सीधा सम्बन्ध उस समय में प्रचलित जनता के शिष्टाचार के साथ है। उस समय जनता के शिष्टाचार की धारा इसी रूप में बह रही थी। क्या जैन और क्या अजैन सब इसी पद्धति से नमस्कार करते थे। संत के चरणों में पहुँचे, तो तीन बार प्रदक्षिणा करके वन्दना कर लें, मत्था टेक लें—नमस्कार कर लें और उपासना में लग जाएँ, यही शिष्टजन-सम्मत पद्धति उस समय प्रचलित थी। यह लोकाचार था, उस युग का।
तिक्खुत्तो का पाठ बोलना एक बात है, और उसके आशय के अनुरूप व्यवहार करना दूसरी बात है। 'तिक्खुत्तो' का पाठ बोलने का तो यहाँ कोई प्रश्न ही नहीं है, क्योंकि ऐसा कोई उल्लेख शास्त्र में नहीं है, कि आनन्द ने यह पाठ बोला। इस पाठ के अनुसार व्यवहार करने की ही बात है, और उसका स्पष्टीकरण हो ही चुका है, कि ऐसा व्यवहार सभी जगह होता रहा है, और सभी धर्मों के अनुयायी करते रहे हैं। सामान्य व्यवहार सबका एक ही होता था, उस समय।
जब हम यह पाठ बोलते हैं, तब हम समझते हैं, कि यह हमारा अपना है। शाब्दिक रूप में यह कथन ठीक माना जा सकता है। परन्तु जहाँ तक व्यवहार का प्रश्न है, भारतवर्ष का प्रत्येक व्यक्ति उस समय इसी प्रकार का व्यवहार करता था। जो उस समय के इतिहास को बारीकी से जानते होंगे, उन्हें पता चल जाएगा, कि उस काल में नमस्कार करने की यह सर्वसम्मत पद्धति थी।
जिस विधि से आनन्द ने भगवान् की वन्दना की। उस विधि से यह नहीं समझ लेना चाहिए, कि आनन्द को 'तिक्खुत्तो' का पाठ याद था।
शास्त्रों में जहाँ कहीं भी किसी के किसी भी धर्म-तीर्थंकर या सन्त के पास जाने और वन्दन-नमस्कार करने का वर्णन आता है, सब जगह यही पाठ आता है'तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेइ, वंदइ, नमसइ जाव पजुवासइ। किन्तु कहीं भी
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