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७० । उपासक आनन्द
भावना में लीन नहीं होता, अलौकिक भक्ति की तरंग में नहीं बहता, वह भगवान् के दर्शन का पूरा रस नहीं पा सकता । सन्त आनन्दघन ने कहा है
जिन स्वरूप कई जिन आराधे,
ते सही जिनवर होवे रे।
जिनेश्वर देव की भावनाओं में लीन होकर जिनेश्वर देव की सेवा करोगे, तो वह सेवा जिनेश्वर देव की हो सकती है । जिनवर की भावना न रखी, और भक्ति का प्रदर्शन किया, तो वह भक्ति कैसी ?
आनन्द या दूसरे कोई भी भक्त प्रभु के समवसरण में जाते तो सचित्त फूल माला आदि अलग रख दिया करते थे। मगर पीछे से लोगों ने इस महत्त्वपूर्ण बात को ध्यान में न रखते हुए केवल भक्ति की बात को ही सोचना शुरू किया, तो वे भक्ति के पीछे विवेक को भूल गए । विवेक को भूल जाने के कारण ही जो चीजें भगवान् या गुरु के दरबार में नहीं पहुँचनी चाहिए, वे पहुँचने लगी हैं। इससे बड़ी गलत चीज और क्या हो सकती है ?
आप किसी से मिलने जाएँ, और ऐसी चीज लेकर जाएँ, जिसे वह पाप समझ कर त्याग चुका हो, और स्वयं ही न त्याग चुका हो, किन्तु दूसरों को भी त्यागने की प्रेरणा देता हो, तो क्या आपका यह कार्य उचित समझा जाएगा? जिस चीज को वह त्याग चुका है, और दूसरों को त्यागने का उपदेश देता है, वही चीज आप उसको भेंट करने जाएँ, और उसी के द्वारा अपना भक्ति-भाव प्रकट करें, तो यह भक्तिभाव प्रकट करना है, या उसका उपहास करना है ?
राष्ट्रपिता गांधीजी खादी के सबसे बड़े हिमायती थे। उनके जीवन में खादी ताने-बाने की तरह समाई हुई थी । ऐसी स्थिति में कोई मनुष्य दो-तीन सौ रुपये का विदेशी दुशाला लेकर उसे भेंट देने के लिए ले जाए, और उनसे मुलाकात करना चाहे, तो क्या वह मुलाकात करने का सौभाग्य पा सकता है? उसने मुलाकात कर भी ली तो उसका क्या फल होगा? उससे गांधीजी को प्रसन्नता होगी ? नहीं! गांधीजी से उसका मिलना व्यर्थ ही है । यह भी एक मर्यादा है।
असल में व्यक्ति का महत्त्व उसके आदर्शों, सिद्धान्तों और उनके अनुरूप किए जाने वाले उसके व्यवहार के कारण ही है । हाड़-मांस का शरीर तो मनुष्य मात्र का एक-सा होता है। उसके कारण कोई पूज्य या महान् नहीं बनता। जब हम किसी व्यक्ति की पूजा करते हैं, जब वास्तव में उसके आदर्श की पूजा करते हैं। किसी के जीवन - आदर्शों की अवहेलना करके उसकी पूजा करने का कुछ अर्थ नहीं है । वह पूजा नहीं, अवहेलना है। आदर्श के अनुरूप ही व्यवहार भी होना, परम
आवश्यक है ।
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