________________
| समवसरण में प्रवेश | ६५/ दुनियाँ तो दुरंगी है। दुनिया की दृष्टि से चलोगे, तो कहीं के भी नहीं रहोगे। अतएव अपने कार्य का मूल्य आप ही निर्धारित करो और कम से कम धर्म-कृत्य के विषय में तो लज्जा और निन्दा की चिन्ता ही न करो।
आनन्द ने दुनिया का ख्याल नहीं किया। उसके भक्तिभाव ने उससे कहापैदल चलो। और, वह पैदल चल पड़ा। कुछ लोगों ने टीका-टिप्पणी की होगी तो की होगी। सुधर्मा स्वामी ने तो उसके पैदल चलने को इतना महत्त्व दिया, कि शास्त्र में उसका उल्लेख भी कर दिया !
आनन्द किसी के कहने-सुनने पर ध्यान न देता हआ, नगर के बीच में होकर नि:संकोच भाव से प्रभु के दर्शन को जा रहा है। वह नगर में होता हुआ, दूतीपलाश नामक उपवन में, जहां श्रमण भगवान् महावीर विराजमान थे, जा पहुँचा।
यहाँ मूल सूत्र में इसी आशय का पाठ है, किन्तु दूसरे अधिकांश सूत्रों में इस बात का वर्णन मिलता है, कि जब कोई गृहस्थ-भक्त प्रभु-दर्शन के लिए जाता था, तो किस रूप में जाता था ? क्या-क्या तैयारियाँ करके जाता था? इस बात का हमारे यहाँ बड़ा सुन्दर वर्णन आया है। सुनने वालों ने सुना होगा, कि साधक पाँच अभिगम करके समवसरण में जाया करता था।
अभिगम का अर्थ मर्यादा है। जो व्यक्ति जहाँ कहीं भी जाता है, उसे वहाँ की मर्यादा का पालन करना पड़ता है। बिरादरी में जाता है, तो वहाँ की मर्यादा को ध्यान में रखता है। राजदरबार में जाते समय वहाँ की मर्यादा का पालन करना पड़ता है और दूसरे देश में जाने पर वहाँ की मर्यादा के अनुसार चलना आवश्यक हो जाता है। ठीक इसी प्रकार साधु-समागम करते समय भी कुछ मर्यादाओं का पालन करना परम आवश्यक है। मर्यादा भी एक धर्म है।
जो इस प्रकार मर्यादाओं का ध्यान रखते हैं, उन्हीं को शिष्ट और सभ्य समझना चाहिए, और उन्हीं को मनुष्य समझना चाहिए। मर्यादा का ध्यान न रखने वाले मनुष्य और पशु में कोई अन्तर नहीं है। पशु कहीं भी पेशाब कर देता है, कहीं पर गोबर कर देता है, कहीं भी खड़ा हो जाता है, और कहीं भी चल पड़ता है। पशु में इतनी समझ नहीं, कि वह क्या कर रहा है, और कहाँ कर रहा है। वह मर्यादा के अनुकूल है या नहीं ? पशु में इतना विवेक नहीं होता। __ मनुष्य मर्यादा का ज्ञाता होता है। मनुष्य और पशु को अलग-अलग करने वाली लकीर है--मर्यादा। जहाँ वह है, वहाँ मनुष्यता है। वहीं इन्सान की इन्सानियत है, और जहाँ मर्यादा नहीं, वहाँ कुछ भी नहीं।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org