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पुण्य-पाप की गुत्थियाँ
यह श्रीउपासकदशांग सूत्र है और आनन्द के जीवन का वर्णन आपके सामने चल रहा है। श्रमण भगवान् महावीर वाणिज्यग्राम में पधारे हैं और आनन्द उनका पावन प्रवचन सुनने के लिए उनकी ओर जा रहा है।
आनन्द किस रूप में जा रहा है, यह बात सुधर्मा स्वामी ने जम्बू स्वामी से इन शब्दों में कही
पडिनिवखमित्ता सकोरंटमल्लदामेणं छत्रेणं धारिन्जमाणेणं, मणुस्सवग्गुपरिक्खित्ते, पायविहार
चारेणं वणियगामं नयरं मझमझेण निग्गच्छइ अर्थात्, आनन्द अपने घर से निकल कर, हजारे के फूलों की मालाओं से सुशोभित छत्र को धारण किए, मनुष्यों के समूह से घिरा हुआ, पैदल ही, वाणिज्यग्राम नगर के बीचों-बीच होकर निकलता है।
यह मूल पाठ के शब्दों का अर्थ है। इस पाठ में आई हुई अन्य बातों पर कल प्रकाश डाला जा चुका है। इस समय एक बात पर प्रकाश डालना है, जो विशेष रूप से हमारा ध्यान आकर्षित कर रही है।
अगर आप शब्दों पर विशेष रूप से ध्यान देंगे, तो आनन्द के हृदय को अच्छी तरह समझ सकेंगे और उसकी भावनाओं का सही आभास पा लेंगे।
आनन्द महान् वैभवशाली होने पर भी इतना सात्विक वृत्ति वाला है, कि प्रभु के दर्शनों के लिए पैदल जा रहा है। उसने किसी सवारी का उपयोग नहीं किया। वह मनुष्य-वृन्द के साथ स्वयं भी पैदल चल रहा है और नगर के बीचों-बीच राजमार्ग से होकर। आप देख चुके हैं कि वह बड़ा धनपत्ति है और धनकुबेर कहलाता है, तो क्या उसके यहाँ सवारियों की कमी होगी? वह हाथी पर, घोड़े पर, रथ पर या पालकी पर भी चढ़ सकता था। फिर भी वह भगवान् के दर्शन के लिए पैदल जा रहा है।
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