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५८ । उपासक आनन्द । बल डाल दिया गया है। तो मैं पूछता हूँ कि जो तपस्या में भूखा रह रहा है, सो क्या पाप के उदय से ? व्रत या साधना में भूखा रहना किस कर्म के उदय का फल है ? आप विचार में पड़ गए होंगे, किन्तु यहाँ कर्मों के उदय का फल नहीं है। यह तो कर्मों के क्षयोयशय का फल है।
श्रावक बने तो किस कर्म के उदय से ? कह देते हैं पुण्य कर्म के उदय से भगवान् की और संतों की वाणी सुनने को मिलती है, दर्शन-मिलते हैं, श्रावकपना
और साधुपना मिलता है सो किस कर्म से ? इसके लिए भी कह दिया जाता है कि पुण्य के उदय से साधु बनने की बात चलती है तो लोग कहते हैं—इतना पुण्योदय कहाँ है ? प्रबल पुण्य का उदय होगा तब कहीं साधुपना मिलेगा। परन्तु कभी आपने विचार किया है कि पुण्य कर्म की कौन-सी प्रकृति है वह, जिसके उदय से साधुपना या श्रावकपना मिलता है ?
हर जगह कर्मों की फांसी क्यों गले में लगा रखी है ? सभी जगह पुण्य और पाप के उदय को ही क्यों सोचते हो ? जहाँ जीवन के बंधन तोड़ने का प्रश्न है या साधुत्व का प्रश्न है, दूसरे से काम लेने का प्रश्न है या अपने आप काम करने का प्रश्न है, वहाँ पुण्य-पाप के उदय की कोई बात नहीं है।
यह बहिनें भूखी और प्यासी रह कर तपस्या करती हैं, तो इनके कौन-से कर्म का उदय आ गया ? और आपने यहाँ सामायिक करने के लिए कपड़े उतार दिए तो कौन-से कर्म का उदय आ गया? यह कर्म का उदय नहीं है, बल्कि क्षयोपशम की बात है।
किसी भाई ने सवारी का त्याग कर दिया और पैदल चलने का नियम ले लिया, तो वहाँ किस पापकर्म का उदय समझा जाएगा? जब तक उसकी पुण्य प्रकृति का उदय था, तब तक वह सवारी में बैठता था और जब पाप का उदय आ गया तो उसने सवारी का त्याग कर दिया?
तथ्य यह है कि जब तक हम इस जीवन के सम्बन्ध में विचार नहीं करेंगे, तब तक यह साधनाएँ और जीवन की महत्त्वपर्ण समस्याएं हल नहीं हो पाएंगी।
एक साधु शास्त्रोक्त मार्ग पर चलता है और अपने उपकरण आप ही लेकर चलता है। दूसरा साधु गलत रास्ते पर चल कर, अपने उपकरणों की गठरी बना कर; किसी गृहस्थ को दे देता है। तो क्या अपने उपकरण स्वयं लेकर चलने वाला साधु के पाप का उदय है ? और जो स्वयं उठाकर नहीं चल रहा है और दूसरे गृहस्थ पर लाद कर चल रहा है, उसके पुण्य का उदय है ? इन सब बातों पर आपको गंभीरता से विचार करना है और विचारपूर्वक इन प्रश्नों को हल करना है।
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