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३० | उपासक आनन्द
वाणी श्रवण करके अपने कानों को पवित्र करूँगा और अपने जीवन के विषय में प्रकाश पाकर जीवन को पवित्र बनाऊँगा । तो, चलकर उस महान आत्मा के दर्शन करूँ, उनकी सेवा करूँ।
आनन्द के मन में ज्यों ही यह बात आई, कि उसकी प्रसन्नता का पार न रहा । वह जैन नहीं था । तीर्थंकरों के सम्बन्ध में भी वह कुछ नहीं जानता था । फिर भी उसने किसी से सुना कि भगवान् पधारे हैं तो उसको महान हर्ष हुआ । उसके हृदय में आनन्द का सागर उमड़ पड़ा।
बात यह है कि जैन होने से पहले ही एक विशेष भूमिका बन जानी चाहिए । जीवन में सामान्यतः श्रद्धा-शीलता होनी चाहिए। मन में धर्म के प्रति प्रेरणा उत्पन्न हो जानी चाहिए और यह धारणा बना लेनी चाहिए कि हमारा जन्म भोग-विलास के लिए नहीं, वास्तविक कल्याण के लिए है । संक्षेप में, जीवन में जागृति आ जानी चाहिए कि जिससे प्रकाश मिलने पर उसे ग्रहण किया जा सके।
आनन्द धार्मिक विचारों का था । उसके संस्कार पवित्र थे । यद्यपि उसे जैनधर्म की श्रद्धा नहीं थी, परन्तु विद्वान् और गुणी पुरुष को देखकर प्रसन्न होने का उसका स्वभाव था। हमारे यहाँ चार भावनाओं का वर्णन है, जिनमें एक भावना है— गुणिषु प्रमोदम् ।
कोई व्यक्ति ऐसा होता है, जो अपने आप में नम्र होता है और श्रद्धालु भी । अपने से ज्यादा गुणी को देखता है, तो प्रसन्न होता है। इस प्रकार गुणी - जन के आगमन से मन में प्रसन्नता होना, हृदय का गद्गद हो जाना और उससे कुछ प्राप्त करने की मनोवृत्ति उत्पन्न होना, प्रमोद - भावना का लक्षण है। यह भावना जिसमें होगी, वह महान् बन जाएगा।
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आनन्द के मन में प्रमोद - भावना का गुण पहिले से ही विद्यमान था । जो भी गुणी हो उसके प्रति सन्मान का भाव होना चाहिए और गुणी का नाम सुनते ही हृदय हर्ष से गद्गद हो जाना चाहिए, फिर वह किसी भी सम्प्रदाय का हो या किसी भी पंथ का हो उसके पास जाना, उसकी वाणी सुनना और यथोचित सेवा करना, यह विवेकवान् और गुणग्राहक का कर्त्तव्य है । और, आनन्द का ऐसा ही दृष्टिकोण था । उसका ऐसा दृष्टिकोण न होता तो वह भगवान् महावीर के पास क्यों जाता ? यह उदार वृत्ति उसमें पहले से ही न होती तो भगवान् के आगमन का समाचार पाते ही वह उनकी सेवा में उपस्थित होने का संकल्प कैसे कर लेता ?
भारतवर्ष में, प्राचीन काल में, पर्याप्त धार्मिक उदारता थी। एक धर्म के अनुयायी दूसरे धर्म के उपदेशक के पास आने-जाने में हिचकिचाहट का अनुभव
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