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|३८ । उपासक आनन्द
उन्होंने कहा—सभी जैन हैं।
बच्चे गए और उनको कहानी या भजन सुनाए और समकित देना शुरू कर दिया। उन बच्चों को क्या पता कि तुमने धर्म का दान दे दिया है या शिष्य बना लिया है। ऐसी स्थिति में क्या काम आया वह समकित का देना ?
हाँ, किसी एक आचार्य के नाम की ही समकित दिलाई होती तो संधैक्य की दृष्टि से कुछ न कुछ लाभ भी हो सकता था! अपने-अपने नाम की समकित देने से वह लाभ भी तो नहीं हो पाता! यह है आज की हमारी मनोदशा! ____ मैं एक जगह पहुँचा तो मुझसे पूछा गया कि गाँवों में प्रचार किया या नहीं किया ?
मैंने कहा-कैसा प्रचार ? प्रचार दो तरह का है—एक भगवान् महावीर का और दूसरा अपने-अपने व्यक्तित्व का। आप किस प्रचार की बात पूछ रहे हैं ? ___ आजकल भगवान् का और भगवान् की वाणी का प्रचार होता है या नहीं, महावीर की महत्ता के दर्शन कराये जाते हैं या नहीं, यह तो किनारे रहा, किन्तु अपने-अपने व्यक्तित्व का प्रचार जरूर किया जाता है।
गुरु साथ में हों तब भी अपनी ओर श्रद्धा मोड़ने का प्रयास किया जाता है। अपनी महत्ता का प्रचार करने की कोशिश की जाती है। इस कारण जनता के अंदर जीवन नहीं रहा है। जनता की श्रद्धा बिखर गई है और जनता में धर्म का सौरभ नहीं रहा है। कागज की पुड़िया में रखा हुआ कपूर उड़ जाता है--अणु-अणु करके बिखर जाता है, तो कोरा कागज रह जाता है, उसकी सुवास चली जाती है। सुवास तभी तक रहती है, जब तक उसके परमाणु इकट्ठे रहते हैं। __जनता के जीवन में धर्म की सुगन्ध पैदा करने के लिए उसकी श्रद्धा का केन्द्रीयकरण होना आवश्यक है। प्रत्येक साधु अपनी-अपनी प्रतिष्ठा का प्रचार न करे, अपनी ओर जनता को मोड़ने का प्रयत्न न करे इसके विपरीत अगर केन्द्र की ओर उसके प्रयत्न मुड़ जाएँ, अगर वह व्यक्तिगत ख्याति लाभ की इच्छा का त्याग कर दे, तो मैं समझता हूँ कि छोटा साधु भी महान् बन जाएगा। ऐसी दशा में उसकी प्रतिष्ठा की क्षति नहीं होगी, उसमें वृद्धि ही होगी।
अभी-अभी आचार्य जवाहरलाल जी महाराज हो चुके हैं। उनसे आप सब भलीभांति परिचित हैं। मैं थोड़े समय तक ही उनके सम्पर्क में आया हूँ, और थोड़ा ही परिचित हो सका हूँ। एक बार बातचीत चल रही थी तो उन्होंने कहा—मिट्टी का ढेला लेते हैं और सूत लपेट देते हैं तो वह गणेशजी बन जाता है। इसी प्रकार यदि छोटे से छोटे साधु को भी आचार्य बना दिया जाए और उसके प्रति श्रद्धा अर्पित की
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