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आनन्द का प्रस्थान
यह उपासकदशांगसूत्र है और आनन्द के जीवन का वर्णन आपके सामने चल रहा है। आनन्द के घर सांसारिक दृष्टि से सब तरह का आनन्द है। उसके पास विपुल वैभव है और प्रचुर सम्पत्ति है। उसके घर में दिन-रात लक्ष्मी की झंकार होती रहती है; किन्तु लक्ष्मी की झंकार में भी वह धर्म के मार्ग को भूला नहीं है, अपने कर्तव्य को भूला नहीं है। धन और धर्म, दोनों में से उसने धर्म का चुनाव किया था। ___ साधारण रूप से देखा जाता है, कि मनुष्य जब अकिंचन होता है, तब उसे चारों
ओर से गरीबी सताती है, और वह आर्त हो उठता है, तो उसे भगवान् याद आते हैं, साधु याद आते हैं, और धर्म-कर्म की बात उसके मुँह से निकलती है। मगर ज्यों ही उसके भाग्य ने पलटा खाया, उसे लक्ष्मी की गर्मी मिली, और धन का नशा चढ़ा कि दिल और दिमाग फिर गया। तब भगवान् को वह भूल जाता है, और गुरुजी भी ताक में एक ओर रख दिए जाते हैं। धर्म-कर्म की बातें भी वह करना भूल जाता है। इसी बात को एक कवि के शब्दों में यों समझिए
दुख में सुमरन सब करें, सुख में करे न कोय।
जो सुख में सुमरन करे, दुख काहे को होय॥ कवि के कथनानुसार सुख में भगवान् को सभी भूल जाते हैं, और यहाँ पर 'सभी' शब्द का अर्थ है, अधिकांश लोग! वास्तव में, सांसारिक दृष्टि से अपने अच्छे दिनों में ज्यादातर लोग भगवान को भूल जाते हैं। सोने के सिंहासन का नशा एक बहुत बड़ा नशा है। वह नशा उस आदमी के दिल और दिमाग को पागल बना देता है। कहा गया है
कनक कनक ते सौ गुनी, मादकता अधिकाय।
वा खाये बौरात है, या पाए बोराय॥ कनक का अर्थ संस्कृत भाषा में सोना भी होता है, और धतूरा भी होता है। कवि कहता है—कनक अर्थात् धतूरे की अपेक्षा कनक अर्थात् सोने में सैकड़ों गुना नशा अधिक होता है। दुनिया में धन का नशा सबसे अधिक भयंकर होता है।
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