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गुणिषु प्रमोदम् । ४१| साधु और श्रावक इस तथ्य को समझें और संघ का और धर्म का प्रभाव बढ़ाने में तत्पर हों, तो उनका भी कल्याण होगा।
भगवान् महावीर तो महामहिमा से मण्डित थे ही, किन्तु उस समय का जैनसंघ भी अखण्ड था। लोगों की श्रद्धा बिखरी नहीं थी । समग्र संघ की श्रद्धा भगवान् के ही चरणों में अर्पित थी । यह सोने में सुगंध थी। इस कारण आनन्द जैसे जैनेतर लोग भी अनायास ही जैनसंघ में सम्मिलित हो सके। आनन्द के चरित से यह एक बहुत महत्त्वपूर्ण सन्देश हमें मिल रहा है।
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कुन्दन - भवन, अजमेर
ब्यावर,
१९-८-५०
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