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| गुणिषु प्रमोदम् । ३७ आज हमारी स्थिति यह है कि हम किसी एक आचार्य को अपना धर्मनायक बनाकर अपनी श्रद्धा प्रकट नहीं कर पाते और गिरोह बनते जा रहे हैं-गिरोहों में से गिरोह बनते चले जाते हैं। अढाई हजार वर्षों का जैनसंघ का इतिहास हमारी इस दुर्बलता का जीता-जागता इतिहास है। इस लम्बे काल में हम बिखेरने ही बिखेरने में रहे हैं। केन्द्रीयकरण की ओर कोई ध्यान ही नहीं दिया गया और कदाचित् किसी ने ध्यान दिया हो तो हम नहीं जानते कि उसका कोई कारगर नतीजा निकला हो। जैनसंघ का इतिहास तो यही बतलाता है, कि हम बराबर विकेन्द्रीयकरण करने में ही लगे रहे हैं और सम्प्रदायों, गणों और गच्छों के रूप में नये-नये गिरोह बनाते चले
यही कारण है कि आज जैनसंघ की किसी एक आचार्य के प्रति श्रद्धा नहीं रही है और सब अपने-अपने पक्ष को प्रबल बनाने का प्रयत्न करते हैं। इस कारण जैनसंघ की श्रद्धा बिखर गई है। हम न एक गुरु के रहे हैं, न एक आचार्य के होकर रहे हैं। जो भी आचार्य हैं या साधु हैं, वे यही कहते हैं कि ले लो हमारी समकित। इस प्रकार एक साधु दूसरे साधु की समकित को भी समकित नहीं समझता! गजब का अंधेर है। एक या दो वर्ष दीक्षा लिए नहीं हुए और समझ कुछ आई नहीं है और कहने लगे—लो मेरी समकित। ___और अबोध बच्चों को भी समकित दी जाती है। समकित क्या चीज है, यह न देने वाला जानता है और न लेने वाला ही जानता है। फिर भी आश्चर्य है, कि देने वाला दे देता है और लेने वाला ले लेता है। समकित भी मानो रोटी-पानी है। जिसने जब जिसे देना चाहा, तब दे दिया। जैन-सिद्धान्त तो समकित के विषय में कुछ और ही बात बतलाता है। समकित आत्म विशुद्धि से उत्पन्न होती है, मिथ्यात्व मोहनीय
और अनन्तानुबंधी कषाय के दूर होने से आविर्भूत होती है। वह वरदान या पुरस्कार में मिलने वाली चीज नहीं है। फिर भी आज वह देने और लेने की चीज रह गई है।
मैंने देखा एक साधु थे, जिन्हें अपने तत्व-ज्ञान का अभिमान प्रचुर मात्रा में था, किन्तु थे कोरे भद्रं भद्र ही। और उन्होंने मुझसे कहा—अजी, मैंने कितनों को ही तार दिया है।
मैंने पूछा–महाराज, कैसे तार दिया है आपने ?
तब उन्होंने एक रजिस्टर दिखलाया। उस रजिस्टर को वे अपने साथ लिए फिरते थे। उसमें उनके द्वारा तिरे हुए भक्तों की सूची थी। सब के नाम-ठाम और पूरे पते लिखे थे। वह सूची दिखला कर वे बोले—मैंने इतनों को समकित दे दी है।
मैंने पूछा—इनमें कितने जैन और कितने अजैन हैं ?
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