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गुणिषु प्रमोदम्
यह उपासकदशांगसूत्र है और आनन्द श्रावक का वर्णन चल रहा है। कल बतलाया गया था, कि श्रमण भगवान् महावीर वाणिज्यग्राम में पधारे हैं और समवसरण लग रहा है। नगर की जनता, बहुत बड़ी संख्या में, प्रभु का प्रवचन सुनने के लिए उमड़ रही है। राजा जितशत्रु भी पहुंच गए हैं और भगवान् की पर्युपासना करने लगे हैं और सुधर्मा स्वामी, जम्बू स्वामी से कहते हैं:
तए णं से आणंदे गाहावई इमीए कहाए सद्देहे माणे, एवं खलु समण..........जाव विहारइ। तं महाफलं ............ जाव गच्छामि जाव पजुवासामि, संपेहेइ।" __ भगवान् महावीर वाणिज्यग्राम नगर में पधारे हैं, यह खबर आनन्द ने भी सुनी। सुनने को तो मनुष्य बहुत-सी बातें सुनता है, मगर एक कान से सुन कर दूसरे कान से निकाल देता है। सुनी को अनसुनी कर देता है। सुनने के साथ जो बात मन में न बैठे और मन का स्पर्श न करे, उसका सुनना वृथा है। उस सुनने का कुछ अर्थ नहीं है। ___ मगर आनन्द ने जब भगवान् के पधारने की बात सुनी तो सुन कर अनसुनी नहीं कर दी। इस बात को सुनकर उसका हृदय एकदम प्रभावित हो उठा। इसी आशय को सूचित करने के लिए मूल में कहा गया है, कि यह बात उसने लब्ध की, प्राप्त की।
श्रवण का फल विचारणा है। जो किसी बात को सुनकर ही रह जाता है, वह जीवन का पूरा आनन्द नहीं उठा पाता। अतएव जो बात सुनी जाए, उसके सम्बन्ध में विचार करना चाहिए, मनन करना चाहिए और मनन करने पर ग्राह्य हो तो ग्रहण भी करना चाहिए और उस विषय में अपने कर्त्तव्य को निश्चित करना चाहिए। मनुष्य में यह प्रवृत्ति होगी तो उसे सुनने का आनन्द मलेगा और उसका सुनना सार्थक होगा।
आनन्द को भगवान् के पदार्पण की बात सुनकर अत्यन्त हर्ष हुआ, बहुत आनन्द हुआ। उसने सोचा, भगवान् का दर्शन करने और उनकी उपासना करने से मुझे महान् फल की प्राप्ति होगी। मैं उनके दर्शन करके अपने नेत्रों को सफल करूँगा, उनकी
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