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|२२| उपासक आनन्द ।
इसी प्रकार साधारण आदमी दुःख की आग में पड़ता है, तो जल जाता है। अपने जीवन को बर्वाद कर देता है। उसके संयम का रंग फीका पड़ जाता है; किन्तु जब महान् पुरुष उसी आग में कूदते हैं, तो सोने की तरह चमकते हुए निकलते हैं।
अभिप्राय यह है, कि उस महान् पुरुष ने दुःखों की भीषण आग में से निकल कर स्वर्ण की भाँति निखालिस स्वरूप प्राप्त किया और वे भगवान् महावीर के रूप में आए। वे भगवान् के रूप में आए, तो हम उनकी स्तुतियाँ गाते हैं और उन्हें नमस्कार करके अपने जीवन को धन्य मानते हैं। हम उनकी इज्जत इसलिए नहीं करते, कि वे हमारी जाति-बिरादरी के थे, इसलिए भी नहीं कि हमें उनसे कुछ मिल जाएगा। वे अपने स्थान पर पहुंच गए हैं और हम से कह गए हैं कि
परो ददातीति विमुञ्च शेमुषीम अर्थात्—इस विचार को छोड़ दो, कि तुम्हें कोई कुछ भी दे सकता है, तुम्हें जो कुछ पाना है, अपने कर्तव्यों से पाना है।
फिर भी हम भगवान् महावीर की स्तुति करते हैं तो कृतज्ञता के वशीभूत होकर उनके असामान्य गुणों के आकर्षण ने हमें खींच लिया है। उनके गुणों ने हमारे चित्त पर ऐसा जादू डाला है, कि वह हठात् उनकी स्तुति करने में प्रवृत्त होता है। वहाँ कोई डंडा नहीं है, हुकूमत नहीं है, किन्तु दिल की हुकूमत है, उनके गुण हमारे हृदय पर अधिकार जमाए बैठे हैं, उनके जीवन की महान् छाप हमारे जीवन पर अंकित हो गई है, उनके जीवन की हुँकार हमें बल प्रदान कर रही है और आज २५०० वर्ष के बाद भी उनके प्रति हमारा आकर्षण कम नहीं हुआ है, वह कम होने वाली चीज भी नहीं है, वहाँ वह शान है, जिसकी चमक धुंधली पड़ने वाली नहीं है।
ऐसे भगवान् महावीर पहले श्रमण बने, सच्चे साधु बने, जीवन बदलने वाले साधु बने, उन्होंने विकारों को मारा, उन पर विजय प्राप्त की, तो विकार-विजयी होकर विकारों के प्रधान सेनापति मोहनीय कर्म को परास्त किया, वीतरागदशा प्राप्त की, फिर उनका जीवन उस उच्च श्रेणी पर पहुँचा, कि केवल ज्ञान और केवल दर्शन की दिव्य ज्योति से जगमगा उठा, तब उनके ज्ञानदर्शन को न काल की सीमाएँ रोक सकी और न देश की सीमाएँ ही बाँध सकीं।
हमारा ज्ञान देश और काल की सीमाओं से बँधा है। मैं देख रहा हूँ, क्योंकि देखना आत्मा का स्वभाव है और स्वभाव का कभी समूल विनाश नहीं होता; किन्तु हमारे देखने की एक सीमा है। हमारे जानने और समझने की भी सीमा है। इस प्रकार हमारा दर्शन और ज्ञान सीमित है, वह देश काल की सीमाओं में सीमित है। किन्तु केवल ज्ञान होने पर देश-काल की कोई भी सीमा कायम नहीं रहती। समग्र विश्व जैसे आँखों के आगे तैरने लगता है। हमारे भारतीय सन्तों ने कहा है
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