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गो-पालक आनन्द | १३ जान सकेंगे, कि पशुओं के दूध से बनी रक्त की बूँदें ही अधिक हैं। मनुष्य माता का दूध तो अत्यल्प काल तक ही पीता है, पर गौ-माता के दूध की धार तो मृत्यु की अन्तिम घड़ियों तक उसके मुँह में जाती रहती हैं । इसी कृतज्ञता से गद्गद होकर पूर्वजों ने कहा है -
माता, वृषभ: पिता मे । गाय मेरी माता है और बैल मेरा पिता है।
आप अपने चित्त को शान्त करके विचार करेंगे, तो मालूम होगा, कि भावनायें केवल लिखने के लिये ही नहीं लिखी गई हैं। यह बातें जनता के मनोरंजन के लिए भी नहीं कही गई हैं। इन शब्दों के पीछे पूर्वजों की उदार भावनाएँ काम कर रही हैं । गौ माता का जो हमारे ऊपर उपकार है, उसको प्रकट करने के लिए ही, कृतज्ञता के वशीभूत हो, हमारे महान् पूर्वज ने एक दिन यह बात कही थी। फिर, सभी ने उसकी इस बात को स्वीकार किया। जब इतने बड़े दार्शनिक और विचारक कहने को तैयार हुए, कि गाय हमारी माता है, तो यह कोई साधारण बात नहीं है। समझा जा सकता है, गाय को माता के पद पर पहुँचाने वालों में कितनी कृतज्ञता और कितनी उदारता होगी। उन्होंने बड़े ही गम्भीर भाव से यह बात कही है। जिसके मुख से यह महान् वाक्य निकला है, उसके हृदय में गौ-माता के प्रति कितना गहरा प्रेम उमड़ा होगा ?
प्राचीन काल में भारतवर्ष में पशुओं के प्रति प्रेमपूर्ण व्यवहार किया जाता था, और अत्यन्त सहानुभूति के साथ उनका पालन-पोषण । आनन्द श्रावक की ही बात लीजिए | उसको अपने समय का एक बड़ा गोपालक कहा जा सकता है। वह चालीस हजार गायों का अकेला पालन-पोषण किया करता था। अगर उस नगर के अन्य सब नागरिकों के पास वाली गायों की संख्या इससे दुगनी या चौगुनी मानली जाए, तो उस समय भारत के एक ही नगर में गायों की संख्या लाखों पर पहुँचती है। जिस नगर में इतनी प्रचुर संख्या में गायें हों, वहाँ की सुख-समृद्धि की कल्पना आप स्वयं कर सकते हैं। वहाँ के निवासियों को दूध और दही की क्या कमी रह सकती है । अमृत की धाराएँ बहती होंगी वहाँ ! दूध की गङ्गा बहती होगी, और लोगों को जीवन - रस मिलता होगा। वहाँ के लोग क्या आज की तरह दूध की एक-एक बूँद के लिए तरसते होंगे ?
मानव सेवा और आनन्द :
नहीं, स्वप्न में भी नहीं । मगर प्रश्न हो सकता है, कि आनन्द ने गायों की इतनी बड़ी फौज किस लिए रख छोड़ी थी ? आनन्द कोई दैत्य तो नहीं था, कि चालीस हजार गायों का दूध स्वयं गटक जाता हो । चालीस हजार में से, बीस हजार गायें तो
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