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| गो-पालक आनन्द । ११ करना चाहें, तो मैं पूछता हूँ, आपकी क्या यही इंसानियत है ? आपकी इंसानियत का क्या यही तकाजा है ? वास्तव में, जैन-धर्म अहिंसा के रूप में मनुष्यता के इसी सन्देश को लेकर आपके सम्मुख उपस्थित है। संसार के अन्य धर्म भी अपने प्रेम के सन्देश में आपसे मनुष्यता की यही बात कर रहे हैं। संसार के सभी महापुरुषों ने अब तक इस एक ही सिद्धान्त का प्रतिपादन किया है, और वही नाना शास्त्रों के रूप में जनता के सामने है। क्या वेद, क्या उपनिषद्, क्या पुराण और क्या आगम और क्या दुसरे धर्म-शास्त्र, सब का निचोड़ इस संबंध में एक ही है। सभी शास्त्रों में से एक ही ध्वनि सुनाई देती है।
श्रूयतां धर्म सर्वस्वं, श्रुत्वा चैवावधार्य ताम्।
आत्मनः प्रतिकूलानि, परेषां न समाचरेत्। सब धर्मों को सुनो और उनके सार को अपने मन में रखो। तुमने धर्म को सुना और सुन कर रह गए और जीवन में ग्रहण नहीं कर सके, तो उस सुनने का कोई मूल्य नहीं है। धर्म को सुनकर सब बातें स्मरण नहीं रख सकते, तो न सही, उसका जो सार है, निचोड है और मन में रख लेने योग्य जो अंश है, उसे तो अपने मन में रख ही लो। अवसर मिलने पर उसे अपने व्यवहार में उतारो। धर्मों का वह सार या निचोड़ क्या है ? वह यही, कि जो बातें और जो व्यवहार तुम अपने लिए अनुकूल नहीं समझते, वैसा वह व्यवहार दूसरों के प्रति भी मत करो।
दूसरे लोग तुम्हारे प्रति जब प्रतिकूल व्यवहार करते हैं, तो तुम्हें पीड़ा होती है। कोई तुम्हें पददलित करता है, तो तुम वेदना का अनुभव करते हो। वैसा व्यवहार तुम दूसरों के प्रति मत करो। दूसरों के व्यवहार से जैसे तुम्हें पीड़ा हुई, वैसे ही तुम्हारे व्यवहार से दूसरों को भी पीड़ा होना स्वाभाविक है। मानवता की प्रथम श्रेणी : __एक मनुष्य के प्रति दूसरे मनुष्य की यह जो नीति है, उसे चाहे अहिंसा कह लीजिए, दया कह लीजिए या इंसानियत कह लीजिए, यही मानवता की पहली सीढ़ी है।
एक मनुष्य का दूसरे मनुष्य के साथ कैसा व्यवहार है, उसके उस व्यवहार में कड़वापन है या मिठास है, यही हिंसा और अहिंसा की कसौटी है। यदि व्यवहार में कटुता है और हिंसा का तांडव-नृत्य है, वहाँ मानवता के पनपने के लिए कोई भूमिका नहीं है। जहाँ राक्षसी भावनाओं का वातावरण है, जहाँ एक-दूसरे को चूसना, लूटना, दबोचना और पद-दलित करना ही केवल विद्यमान है, वहाँ अहिंसा कहाँ रहेगी? और मानवता के दर्शन कैसे हो सकेंगे?
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