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१६ । उपासक आनन्द यह भारतीय संस्कृति का रूप है। यह धर्म का प्रश्न नहीं, संस्कृति का प्रश्न है। जाति का प्रश्न है, और इन्सानियत का प्रश्न है। गाय का प्रश्न मानव-जीवन का प्रश्न है।
कुछ प्रश्न ऐसे हैं, जो उलझ गए हैं। एक प्रश्न हमारे सामने आया है, गाय को हल में जोता जाए, तो क्या हानि है? वह दूध भी देती रहे, और हल भी जोतती रहे। हल में जुतने पर भी उसके दूध देने की मात्रा में कोई कमी नहीं होगी। वैज्ञानिकों ने परीक्षण करके देख लिया है। ___मैं कहता हूँ, कि दूध कम होगा या नहीं, यह प्रश्न नहीं है। प्रश्न तो भावना का है। गाय के प्रति भारत की जो भावना है, वह ऐसा करने के लिए इजाजत देती है या नहीं ? किसी नारी को दुह लेना जैसे भारत में असह्य समझा जाएगा, उसी प्रकार गायों को हल में जोतना भी असह्य समझा जाएगा। ऐसा करने से कोटि-कोटि मनुष्यों की भावना को ठेस पहुँचेगी, और भारत का एक प्रकार से सांस्कृतिक पतन होगा।
जब जोतने के लिए बैल मौजूद हैं, तो फिर गायों को जोतने की क्यों आवश्यकता महसूस होती है? यह तो संभव नहीं, कि गायें रहें, किन्तु उनसे बछड़े न पैदा हों,
और वे बड़े होकर बैल न बनें। गायें होंगी, तो बैल होंगे ही। अगर बैलों का काम गाय से लिया जाने लगा, तो बैल क्या काम आएँगे। फिर तो उन्हें मार डालने का ही रास्ता निश्चित किया जाएगा।
तात्पर्य यह है, कि गाय दूध देकर, गोबर देकर और इतने बछड़ा-बछड़ी देकर गृहस्थ को बहुत-कुछ दे जाती है। इसके इतने दान से भी न सन्तुष्ट न होना और उसे हल में जोतने की बात कहना असांस्कृतिक है, निर्दयता भी है, और इससे बैलों की हत्या का प्रश्न भी जुड़ा हुआ है। अतएव यह विचार अनुमोदनीय नहीं है।
दूसरा प्रश्न बंदरों का है। आज तक भारत ने पशुओं को अपने संगी-साथी के रूप में ही स्वीकार नहीं किया है, वरन् उन्हें अपना देवी-देवता भी बना लिया है। देवी-देवता बनाकर भारत ने क्या सोचा है, यह बात आज नहीं कहनी है। पर बंदरों को भारत ने हनुमान जी का वंशज माना है। लोग हर मंगलवार को, चाहे अपने लड़कों का मुंह मीठा न करें, परन्तु बंदरों को कुछ न कुछ प्रसाद अवश्य डालेंगे। विषधर पर करुणा : ___ यह भारतीय ही हैं, जो साँप जैसे प्राणियों को भी दूध पिलाते रहे हैं। जो सर्प दूध पीकर भी जहर ही उगलता है, अमृत नहीं, उसे भी श्रद्धा-पूर्वक दूध पिलाना भारतीय भावना की विशेषता है।
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