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1८1 उपासक आनन्द । 'भी अनेक व्यक्ति उसकी सम्मति मांगा करते थे। जो विचार या कार्य गृहस्थी में
अत्यन्त गोपनीय समझे जाते हैं, और जिनका प्रकट करना अकीर्तिकर माना जाता है, उनके विषय में भी आनन्द से परामर्श करने से किसी को संकोच नहीं होता था। वह राजा और रंक सभी के लिए प्रमाणभूत था, आधार था, पथ-प्रदर्शक था। इसीलिए वाणिज्य ग्राम की सारी जनता उसी के आस-पास चक्कर काटती रहती थी। उसकी सलाह के बिना नगर के किसी भी कोने में कोई महत्त्वपूर्ण कार्य नहीं होता था। आनन्द सागर-सा गम्भीर :
सहज ही कल्पना की जा सकती है, कि इस प्रकार की स्थिति कब उत्पन्न हो सकती है? अगर आनन्द जनता को अपना कुटुम्ब न समझता, उस पर अपनी सद्भावनाओं के पावन प्रसून न बरसाता, तो कौन उसे अपना सर्वस्व मानता ? वह प्रत्येक व्यक्ति को सदैव सच्ची सलाह दिया करता था, अपने समक्ष प्रकट की हुई किसी की गोपनीय बात को दूसरों के सामने प्रकट नहीं करता था। उसका हृदय सागर के समान गम्भीर न होता, तो कुटुम्ब का कलङ्क कौन उसके सामने प्रकट करता?
कौन उसे धो डालने के लिए परामर्श करता ? किन्तु जनता को विश्वास था, कि आनन्द के कानों में पड़ी हुई बात कहीं बाहर नहीं जाएगी। इस विश्वास के बल पर लोग नि:संकोच भाव से उसके पास आते थे, ठीक उसी तरह जिस तरह साधक शिष्य, अपने गुरु के समक्ष अपने रत्ती-रत्ती दोषों को प्रकाशित कर देता है। लोग अपनी गुप्त से गुप्त बात को भी उसके समक्ष प्रकाशित कर देते थे, और आनन्द उनका उचित रूप से मार्ग-प्रदर्शन करता था।
साधारणतया लोग दूसरों के छिद्रों के प्रति अतिशय सजग रहते हैं, और किसी की कोई बुराई मिल गई, तो उल्लसित होते हैं, मानो उन्हें कोई धन का भण्डार मिल गया हो। गंदगी का कीड़ा जैसे गंदगी पाकर अपार हर्ष का अनुभव करता है, उसी प्रकार लोग परकीय छिद्रों को खोजकर आनंद का अनुभव करते हैं, और अपनी खोज को सर्व-साधारण में इस प्रकार फैलाते हैं, जैसे उन्होंने मानो अपूर्व और अद्भुत वस्तु खोज निकाली हो।
कुछ लोग तो इतने कलुषित विचारों के होते हैं, कि दूसरों में असत् दोषों का आरोपण करने में भी संकोच नहीं करते। मगर जो श्रावक बनने की भूमिका तैयार कर रहा हो, वह ऐसा कदापि नहीं करेगा, और जो श्रावक बन चुका है, उसकी तो दृष्टि
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