Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 2
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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१८० गाथाओंकी संख्या निर्दिष्ट की है। सम्बन्ध-गायाएं तथा अवापरिमाणनिर्देशक गाथाएं इन १५ अधिकारों में सम्मिलित नहीं हो सकती हैं । अतः उनकी संख्या छोड़ दी गयी है ।। ___ आचार्य वीरसेनने पुनः शंका उपस्थित की है कि संक्रमण सम्बन्धी ३५ गाथाएं बन्धक नामक अधिकारमें समाविष्ट हो सकती हैं, तब क्यों उनकी गणना उपस्थित नहीं की? इस शंकाका समाधान करते हुए उन्होंने लिखा है कि प्रारंभके पांच अर्थाधिकारों में केवल तीन ही गाथाएं हैं और उन तीन गाथाओंसे निबन हए पांच अधिकारोंमेसे बन्धक नामक अधिकारसे ही उक्त ३५ गाथाएं सम्बद्ध हैं। अतः इन ३५ गाथाओंको १८० गाथाओंकी संख्यामें सम्मिलित करना कोई महत्त्वकी बात नहीं है। हमारा अनुमान है कि जिन ५३ गाथाओंकी गणना आचार्य गुणधरने नहीं की है वे गाथाएं संभवतः नागहस्तिद्वारा विरचित होनी चाहिए । हमारे इस अनुमानकी पुष्टि जयधवलासे भी होती है। जयधवलामें' मतान्तरसे उक्त ५३ गाथाओंको नागहस्तिकृत माना है।
एक बात यह भी विचारणीय है कि सम्बन्धनिर्देशक १२ गाथाओं और अद्धापरिमाणनिर्देशक छ: गाथाओं पर यत्तिवृषभके चूर्णिसूत्र भी उपलब्ध नहीं हैं । यदि ये गाथाएं गुणधर भट्टारक द्वारा विचित होती तो यतिवृषभ इनपर अवश्य ही मूर्णिसूत्र लिखते । दूसरी बात यह कि संक्रमणसे सम्बद्ध ३५ गाथाओंमेंसे १३ गाथाएँ शिवशर्म रचित कर्मप्रकृतिमें भी पायी जाती हैं 1 यह सत्य है कि उक्त तथ्योंसे ५३ गाथाओंके रचयिता नागहस्ति सिद्ध नहीं होते, पर इसमें आशंका नहीं कि उक्त ५३ गायाएं गुणधर भट्टारक द्वारा विरचित नहीं। यद्यपि आचार्य वीरसेनने व्याख्याकारों के मतोंको स्वीकार नहीं किया है तो भी समीक्षाको दृष्टिसे ५३ गाथाओंको गुणधर भट्टारक द्वारा विरचित नहीं माना जा सकता है। रचनाशैलीकी दृष्टिसे १८० गाथाओंकी अपेक्षा ५३ गाथाओंकी शैली भिन्न प्रतीस होती है । एक अनुमान यह भी है कि आचार्य गुणधरने १८० गाथाओंको १५ अधिकारों में विभक्त करनेवाली प्रतिज्ञा नहीं की है। उनकी प्रतिजा तो यह होनी चाहिए थी कि सोलह हजार पद प्रमाण कषायप्राभृतको एक-सौ अस्सी गाथाओंमें संक्षिप्त करता हूँ। वस्तुत: गुणधराचार्य कषाय१. 'असीदिसदगाहाओ मोसूण अबसेससंबंधद्धापरिमाणिहस्रसंक्रमणगाहाको जंग
जागहत्थियारियकयाओ तेण 'गाहासदे असोदे' ति मणिगुण गागत्पिारिएण पज्जा कदा इदि के वि वखाणाइरिया भणति, तण घडदे । सायपाहुड, प्रथम
भाग, पु० १८३. ३४ : तोथंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा