Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 2
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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प्रचार करते हैं। कच्छ, महाकच्छके पुत्र नमि-विनमि भगवान ऋषभदेवसे कुछ माँगने आते हैं | धरणेन्द्र उन्हें समझाकर विजयार्धपर्वत पर ले जाता है ।
एकोनविंश पर्वमें धरणेन्द्र द्वारा नमि-बिनमिको विजया पर्वतको नगरियोंका परिचय दिया गया है। विशपर्वम आदितीर्थंकर ऋषभदेवका एक वर्षके तपःका . अनन्त हस्तिनापुर गांराके यहां पशु रसका आहार होता है ।
एकविंश पर्वमें ध्यानका वर्णन किया गया है । द्वाविंश पर्वमें ऋषभदेवको केवलज्ञानको प्राप्ति, ज्ञानकल्याणक उत्सव एवं समवशरणका चित्रण आया है। त्रयोविंश पर्वमें समवशरणमें इन्द्रने आदि तीर्थकरको पूजा-स्तुति की है । चतुविंश पर्व में भरत द्वारा भगवान ऋषभदेवको पूजा की गयी है। इसी पर्वमें भगवानको दिव्यध्वनिका भी वर्णन आया है। पंचविश पर्व में अष्टप्रातिहाय, चौंतीस अतिशय और अनन्तचतुष्टय सुशोभित तीर्थकरकी स्तुति की गयी है। इस पर्वमें सहस्रनामरूप महास्तवन भी आया है।
षड्विंशतितम पर्व में भरत द्वारा चक्ररत्नको पूजा और पुत्रोत्सव सम्पन्न करनेका वर्णन समाहित है। चक्रवर्ती दिग्विजपके लिए पूर्व दिशाको ओर प्रस्थान करता है । सप्तविंशतितम पर्वमें गंगा और बन शोभाका वर्णन आया है। अष्टविंशतितम पर्वका आरम्भ दिग्विजयार्थ चक्रवर्तीक सैनिक प्रयाणसे होता है । चक्रवर्तीको सेना स्थलमार्गसे गंगाके किनारेके उपवनमें प्रविष्ट होती है । उसने लवण समुद्रको पार कर मागधदेवको जीता। एकोनविंशत्तम पर्व में दक्षिण दिशाको ओर अभियान करनेका वर्णन आया है। विशतितम पर्वमें चक्रवर्ती दक्षिणको विजय कर पश्चिम दिशाकी ओर बढ़ता है और विन्ध्यगिरिपर पहुंचता है। अनन्तर समुद्रके किनारे-किनारे जाकर लवण समुद्रके सटपर पहुंचता है।
एकत्रिशत्तम पर्वमें आया है कि अठारह रोड़ घोड़ों का अधिपति भरत उत्तरकी ओर प्रस्थान करता है और विजयाद्ध की उपत्यकामें पहुंचता है। द्वात्रिंशत्तमपर्वमें विजयार्धके गुहा-द्वारके उद्घाटनके अनन्तर नागजातिको वशमें किये जानेका वर्णन है । चिलात और आवतं दोनों ही मलेच्छ राजा निरुपाय होकर शरणमें आते हैं। __ त्रयस्त्रिंशत्तम पर्व में बताया है कि भरतचक्रवर्ती दिग्विजय करनेके पश्चात् सेना सहित अपनी नगरीमें आता है । मार्गमें अनेक देश, नगर और नदियोंका उल्लंघन कर कैलासपर्वतपर अनेक राजाओंके साथ ऋषभदेवकी पूजा करता है।
३४६ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा