Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 2
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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बीस हजार श्लोकप्रमाण टीका लिखनेके अनन्तर आचार्य वीरसेनका स्वर्गवास हो गया, अतः उनके शिष्य जिनसेनने अवशिष्ट भागपर चालीस हजार श्लोकप्रमाण टीका लिखकर उसे पूर्ण किया। यह टीका भी वीरसेनस्वामीको शैली (संस्कृतमिश्रित प्राकृत भाषा) में मणि-प्रवालन्यायसे लिखी गयी है। टीका इस रूपमें लिखी गयी है कि अन्तःपरीक्षणसे भी यह निर्णय नहीं किया जा सकता कि गुरु और शिष्यमसे किसने कितना भाग रचा है । इसीसे जिनसेनाचार्यके वेष्य और रचनाचातुर्यका अनुमान किया जा सकता है। इन्होंने जयघक्लाको प्रशस्तिमें लिखा है कि गुरुके द्वारा बहुवक्तव्य पूर्वाधके प्रकाशित कर दिये जानेपर, उसको देखकर इस अल्पवक्तव्य उत्तरार्धको पूरा किया।
इस टीकाको तीन स्कन्धों में विभाजित किया गया है-१. प्रदेशविर्भाक्तपर्यन्त गारमाध; २ म, उद: बार उपयोग विसीय स्कन्ध एवं ३. शेष भाग तृतीय स्कन्ध है। इन्द्रनन्दिके श्रुतावतारके अनुसार संक्रमके पहलेका विभक्तिपर्यन्त भाग वीरसेनस्वामोने रचा है। गणना करनेपर विभक्तिपर्यन्त अन्यका परिमाण साढ़े छब्बीस हजार श्लोक है, पर यहाँ गणना स्थूलरूपमें ग्रहणकर बीस हजार प्रमाण कहा गया है । अवशेष टोका जिनसेनस्वामीकी है।
आचार्य विद्यानन्द आचार्य विद्यानन्द ऐसे सारस्वत हैं, जिन्होंने प्रमाण और दर्शनसम्बन्धी ग्रन्थोंको रचनाकर श्रुतपरम्पराको गतिशील बनाया है। इनके जीवनवृत्तके सम्बन्धमें प्रामाणिक इतिवृत्त ज्ञात नहीं है । 'राजावलोकये में विद्यानन्दिका उल्लेख आता है और संक्षिप्त जीवन-वृत्त भी उपलब्ध होता है, पर वे सारस्वताचार्य विद्यानन्द नहीं हैं, परम्परा-पोषक विद्यानन्दि हैं। जीवन-वृत्त - आचार्य विद्यानन्दको रचनाओंके अवलोकनसे यह अवगत होता है कि ये दक्षिण भारतके कर्णाटक प्रान्तके निवासी थे। इसी प्रदेशको इनकी साधना और कार्यभमि होनेका सौभाग्य प्राप्त है। किंवदन्तियोंके आधारपर यह माना जाता है कि इनका जन्म ब्राह्मण परिवारमें दया था। इस मान्यताकी सिद्धि इनके प्रखर पाहित्य और महती विद्वतासे भी होती है । इन्होंने कुमारावस्थामें
-... -- . - . १. पष्ठिरष सहस्राणि ग्रन्यानां परिमाणतः । श्लोकेनानुष्टुभेनात्र निर्दिष्टान्यानपूर्वशः ।। विभक्तिः प्रथमस्कन्यो द्वितीयः संक्रमोदयौ। उपयोगरच शेषस्तु तृतीयः स्कन्ध इष्यते ॥
जयघवला प्रशस्ति ९।१०।
३४८ : तीर्थंकर महावीर और उनकी प्राचार्य-परम्परा