Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 2
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala
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समूहको नाश करके ही सर्वज्ञपद प्राप्त करता है । ऐसी अवस्थामें नैयायिक और वैशेषिकों द्वारा, जो अनादिसिद्ध सर्वज्ञ माना गया है, उससे जगत्-कर्तृत्व सिद्ध नहीं हो सकता।
इस स्तोत्रमें सर्वसिद्धि,अनेकान्तसिद्धि, भावाभवात्मक वस्तुनिरूपण, सप्तभंगीनय, सुनय, निक्षेप, जीवादिपदार्थ, मोक्षमार्ग, वेदकी अपौरुषेयताका निराकरण, ईश्वरके जगत्कर्तृत्वका खण्डन, सर्वथा क्षणिकत्व और नित्यत्व मोमांसा, कपिलाभिमत पच्चीस तत्त्व समीक्षा, ब्रह्माद्वत-मीमांसा, चार्वाक-समीक्षा आदि दार्शनिक विषयोंका समावेश किया गया है। भगवान पार्श्वनाथको राग-द्वेषका विजेता सिद्ध करते हुए, उनको दिव्यवाणीका जयघोष किया है
विदधतिशवः मित्त-सि-मुनिमाय-ममममा नमिस-सुर-रवि-भुवन-परगुरु-तीर्थकृत्त्व-सनामयत् । उदय-पथ-गत - तदनु - विसृतिरशेष-तत्त्व-विभासिनी
जयति जिन जिन विजित-मनसिज भारती तव भासुरा॥ इस प्रकार विद्यानन्दने इस दार्शनिक ग्रन्थमें भी काव्यत्वका निर्वाह किया है। ७. तस्वार्थश्लोकवार्तिकर ___टोकाग्रन्थोंमें सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण तत्त्वार्थश्लोकवात्तिक है। यह ग्रन्थ आचार्य गृपिच्छके सुप्रसिद्ध तत्त्वार्थसूत्रपर कुमारिलके मीमांसाश्लोकवार्तिक और धर्मकीतिके प्रमाणवातिककी तरह पद्यात्मक शैलीमें लिखा गया है। साथ ही पद्यवातिकों पर उन्होंने स्वयं भाष्य अथवा गद्यमें व्याख्यान भी लिखा है । यह जेनदर्शनके प्रमाणभूत ग्रन्थों में प्रथमकोटिका ग्रन्थ है । विद्यानन्दने इसकी रचना करके कुमारिल, धर्मकीति जैसे प्रसिद्ध ताकिकोंके जैनदर्शन पर किये गये माक्षेपोंका उत्तर दिया है | इस ग्रन्थको समता करनेवाला जैनदर्शनमैं तो क्या अन्य किसी भी दर्शन में एक भी ग्रन्थ नहीं है ।
इस ग्रन्थमें आगमके मूल आप्तकी सिद्धि कर पराभिमत आप्तका खण्डन किया गया है। विषयका वर्गीकरण तत्त्वार्थसूत्रके समान ही दश अध्यायोंमें है। चार्वाक आत्माका अस्तित्व न मानकर भूतचतुष्टयका अस्तित्व स्वीकार करता है । अत: विद्यानन्दने चार्वाकका खण्डन कर आत्मतत्त्वको सिद्धि की है। यतः सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रको उत्पत्तिका स्थान आत्मा ही १. श्रीपुरवा० पच २७ । २. तत्त्वार्थश्लोकवातिक, सम्पादक पंडित मनोहरलाल शास्त्री, प्रकाशक गांधी नाथा
रंग जैन ग्रन्थमाला, पोस्ट माण्डवी बम्बई, सन् १९१८ ।
भुतघर और सारस्वताचार्य : ३६१