Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 2
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala

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Page 456
________________ कर्मोदयसे प्राप्त होनेवाले दुःखोंका भी कयन आया है। इस अध्यायमें भूमियोंके वर्ण, प्रकाश एवं उनके क्षेत्र और विस्तारका भी निरूपण है । सप्तम अध्यायमें मध्यलोक और उसके अन्तर्गत जम्बूद्वीप, लवणसमुद्र, घातकीखण्ड, कालोदधिसमुद्र, पुष्करवरद्वीप, मानुषोत्तर षट्कुलाचल, भरत, ऐरावत आदि समक्षत्र, कर्मभूमि, भोगभूमि आदिका प्रतिपादन किया गया है । अष्टम अध्यायमें वैमानिक देकोंका वर्णन है। सौधर्म, ऐशान, सानत्कुमार, माहेन्द्र आदि सोलह स्वर्ग नवर्ग गया, जद अधुनिक दिल्य गा पन्ना, अय, अपराजित और सर्वार्थसिद्धि विमानोंका कथन है । तत्त्वार्थसूत्रके समान हो स्थिति, प्रभाव, सुख, द्युति, लेश्या और अवधिज्ञानकी उत्तरोत्तर अधिकता प्रतिपादित को है। गति, शरीर, परिग्रह और अभिमानको अपेक्षा उत्तरोत्तर हीनता बतलायी गयी है । लौकान्तिक देवोंके मेदोंका वर्णन कर देवोंको उत्कृष्ट और जघन्य आयुका वर्णन किया है। नवम बध्यायमें अजीव, आस्रव और बन्धतत्त्वका वर्णन किया है । अजीवके पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश, और काल मेदों, तथा जीव सहित षड्दव्यों, आस्रवका स्वरूप, आस्रवके प्रत्यय और उसके मेद, बन्धतत्त्वका स्वरूप, बन्धके कारण और बन्धके मेदोंका विस्तारपूर्वक कथन आया है। दशम अध्यायमें निर्जरातत्त्वका वर्णन करते हुए तपके प्रसङ्गसे प्रायश्चित्तका वर्णन बहुत विस्तारपूर्वक किया है। ऐसा वर्णन अन्यत्र नहीं आया है। वस्तुत: प्रायश्चित्त ही इस अध्यायका मुख्य वयं विषय है। किस अपराधके होनेपर कौन-सा प्रायश्चित्त कब ग्रहण करना चाहिए, इसका विस्तारपूर्वक विवेचन आया है। एकादश अध्यायमे विनयतपसे लेकर ध्यानतप तकका वर्णन है । ध्यानके आतं, रौद्र, घमं और शुक्ल इन चारों ध्यानोंका स्वरूप, इनके भेद तथा धर्मध्यानके पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीत भेदोंका स्वरूपसहित विवेचन किया है। ____ द्वादश अध्यायमें भगवती-आराधनाके आधारपर मरणके भेद बतलाकर समाधिमरणका विस्तारपूर्वक कथन किया है। निश्चयतः इस ग्रन्थमें 'तत्त्वार्थसार'की अपेक्षा अधिक विषयोंका समावेश है। तत्त्वार्थसारमें चचित विषयोंका विस्तारपूर्वक कथन किया ही गया है। __ नरेन्द्रसनके नामसे एक प्रतिष्ठाग्रन्थ भी मिलता है । पर हमारा विचार है कि यह गन्य सिद्धान्तसारसंग्रहके रचयिता नरेन्द्रसेनका न होकर किसी अन्य नरेन्द्रसेनका है। ४३८ : तीर्थकर महावीर वीर उनकी आचार्य परम्परा

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