Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 2
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala

View full book text
Previous | Next

Page 461
________________ मोक्षमार्गका कथन आया है । द्रव्यसंग्रहके तीनों अधिकारोंमें भी क्रमशः उक्स विपर ही श्रादा है। पंचारिकममें सना, प्राण, पर्याय आदिको दार्शनिक चर्चाएँ हैं, पर द्रव्यसंग्रहमें उनका अभाव है। इसका कारण यह प्रतीत होता है कि जैनतत्त्वोंके प्राथमिक अभ्यासीके लिए उक्त दार्शनिक चर्चाएं दुरूह हैं। यही कारण है कि सोमवेष्ठिके बोधार्थ पंचास्तिकायके रहने पर भी इस इस ग्रन्थके रचनेको गन्थकारको आवश्यकता प्रतोत हुई। __उल्लेखनीय है कि द्रव्यसंगहकारने निश्चय एवं व्यवहार दोनों नयांसे निरूपण किया है। व्यवहारमयमें किसी अवान्तर भेदका निर्देश तो द्रव्यसंग्रहमें नहीं है किन्तु निश्चयके शुद्ध और अशुद्ध भेदोंका निर्देश अवश्य है । ___ ग्रन्थमें ५८ गाथाएँ हैं। प्रथम गाथामें जीव और अजीव द्रव्योंका कथन करनेवाले भगवान ऋषभदेवको नमस्कार कर गन्धकारने ग्रन्थमें वक्तव्य विषयका भी निर्देश कर दिया है । दूसरी गाथासे जीवद्रव्यका कथन आरम्भ होता है । इसमें जीवको जीव, उपयोगमय, अमूर्तिक, कर्ता, स्वदेहपरिमाण, भोक्ता, संसारो और स्वभावसे उध्वंगमन करनेवाला बतलाया है । यथा जीवो उवओगमओ अमुत्ति कत्ता सदेहपरिमाणो। भोत्ता संसारत्थो सिद्धो सो विस्ससोड्ढगई' ।। इस गाथाके द्वारा नौ अवान्तर अधिकारोंको सूचना दी गयी है । गाथामें निर्दिष्ट क्रमसे प्रत्येक अधिकारका कथन निश्चय और व्यवहार नयको अपेक्षासे किया है। पंचस्तिकायमें भी इसी तरह कथन है । जोवो त्ति हवदि चेदा उवओगविसेसिदो पहू कत्ता। भोत्ता य देहमत्तो ण हि मुत्तो कम्मसंजुत्तो।। कम्ममलविष्पमुक्को उड्ढे लोगस्स अंतमधिगंता। सो सम्वणाण-दरिसी लहदि सुहमणिदियमणंत ।। आत्मा जीव है, उपयोगमय है, प्रभु है, कर्ता है, भोक्ता है, शरीरपरिमाण है, अमूर्तिक है, कर्मसंयुक है और उध्वंगमनस्वभाव है। पंचास्तिकायकी इस शैलीका ही उपयोग द्रव्यसंग्रहकारने किया है । १५वीं गाथासे अजीवद्रव्योंका कथन प्रारम्भ होता है। १६वीं गाथामें तत्त्वार्थसूत्रके समान शब्दादिको पुद्गलका पर्याय कहा है । २८ गाथासे आस्रव आदि तस्वोंका वर्णन प्रारम्भ होता है। भाव और द्रव्यकी अपेक्षा प्रत्येकके दो-दो १. बृहदद्रव्यसंग्रह, वाया २ । २. पञ्चास्तिकाय, नाथा २७, २८ । वृतघर और सारस्वताचार्य : ४४३

Loading...

Page Navigation
1 ... 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471