Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 2
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala

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Page 449
________________ ७. अधनधारा- २, ३, ४, ५, ६, ७, ९, १०, ११, १२, १३, १४, १५, १६, १७, १८, १९, २०, २१, २२, २३, २४, Nill २५, २६, २८, ६३.............न न =नत्र ८. कृतिमातृका या वर्गमातृका-१, २, ३, ५ ............."न/ - न ९. अकृतिमातृका या अवर्ग मातृका-/मू + १. /मू +३ Vम + २, म+५ मन-न II १०. घनमातृका-१, २......................."न"........."न..........न ११. अधनमातृका-३ /मू +१ ३/+२ ३/मू +३ १२. द्विरूपवर्गधारा-(२) = ६५५३६, (२)१२ = (६५५३६)२ या ४२९४९६७२९६, (२)६४ = (४२९४९६७२९६) - १८४४६७४४०७३७०९५५१६१६ .....नि - न १३. विरूपधनधारा-(२), (४१, (९)3,.........."(म)। १४. विरूपघनाघनधारा--[(२)२]3.....'[(४)]....." [(न-]]" इस प्रकार त्रिलोकसारमें १४ धाराओं के कथनके पश्चात् सामान्यलोकाधिकारमें ही वर्गशलाका, अर्द्धच्छेद, विच्छेद, चर्तुच्छेद आदिका भो कथन आया है। अद्धच्छेद गणिसको वर्तमानमें लघुगणकसिद्धान्त कहा गया है। अच्छेदों द्वारा राशिज्ञान प्राप्त करनेके सिद्धान्तका विवेचन करते हुए त्रिलोकसारमें कई नियम आये हैं। इसी प्रकार कुण्डगणितके अनन्तर पल्प, सागर, सूच्यंगुल, प्रतरांगुल, घनांगल, जगच्छेणी, जगत्प्रतर और धनलोकका कथन आया है। पल्यके तीन भेद बतलाये हैं-१. व्यवहारपल्य २. उबारपल्य ३. और बद्धापल्य । इस प्रकार संख्याओंका विधान कर अधोलोकका क्षेत्र धृतधर और सारस्वताचार्य : ४३१

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