Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 2
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala

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Page 451
________________ प्रकार १०९ गाथापर्यन्त प्रथमोपशमसम्यक्त्वका कथन है। इस प्रकरणमें २९ वीं गाया कषायपाहुडकी है और १०६, १०८ और १०९ वी गाथा गोम्मटसार जीवकाण्डकी। गाथा ११० से क्षायिकसम्यक्त्वका कथन आरम्भ होता है। दर्शनमोहनीयकर्मका क्षय होनेसे क्षायिकसम्यक्त्वकी प्राप्ति होती है, पर दर्शनमोहनीयकर्मके क्षयका प्रारम्भ कर्मभूमिका मनुष्य तीर्थकरके पादमूलमें अथवा केवली, श्रुतकेवलोके पादमूलमें करता है और उसकी पूर्ति वहीं अथवा सौधर्मादि कल्पोंमें अथवा कल्पातीतदेवों में अथवा भोगभूमिमें अथवा नरकमें करता है, क्योंकि बद्धायष्क कृतकृत्यवेदक मरकर चारों गतियोंमें जन्म ले सकती है। __अनन्तानुबन्धीचतुष्क और दर्शनमोहनीयको तीन, इन सात प्रकृतियोंके क्षयसे उत्पन्न हुआ क्षायिकसम्यक्रव मेरुकी तरह निष्कम्प, अत्यन्त निर्मल और अक्षय होता है । क्षापिकसम्यग्दृष्टि उसी भवमें, तीसरे भवमें अथवा चौथे भवमें मुक्त हो जाता है ! भायिकसम्यक्त्वके कथनके साथ दर्शनन्धिका कथन भी समाप्त हो जाता है। चारित्रलब्धि एकदेश और सम्पूर्णके भेदसे दो प्रकारकी है। अनादिमिथ्यादृष्टि जीव उपशमसम्यक्त्वके साथ देशचारित्रको ग्रहण करता है और सादिमिथ्यादृष्टि जीव उपशमसम्यक्त्व अयवा वेदकसम्यक्त्व के साथ देशचारित्रको धारण करता है। सकलनारियल तीन भेद बनाये हैं--क्षायोपशमिक, औपशमिक और क्षायिक । क्षायोपशमिक चारित्र छट्टे और सातवें गुणस्थानमें होता है। यह उपशम और वेदक दोनों ही प्रकारके सम्यवत्वोंके साथ उत्पन्न होता है। म्लेच्छ मनुष्य भी आयं मनुष्यों के समान सकलसंयम धारण कर सकता है। इस प्रकार लब्धिसारमें, पांचों लब्धियोंका विस्तारपूर्वक वर्णन आया है। क्षपणासार क्षपणासारमें ६५३ गाथाएं हैं । यह भी गोम्मटसारका उत्तराध जैसा है। कर्मोको क्षय करनेकी बिधिका निरूपण इस ग्रन्थमें किया गया है। इसकी प्रशस्तिसे ज्ञात होता है कि माधवचन्द्र श्रेवेद्यने बाहुली मन्त्रीको प्रार्थना पर संस्कृत-टीका लिखकर पूर्ण की है। आचार्य नरेन्द्रसेन अमृतचन्द्रक तत्त्वार्थसारकी शैलीपर आचार्य नरेन्द्रसेनने 'सिद्धान्तसार' संग्रह' नामक ग्रन्थ रचा है । शैलीमें समानता होनेपर भी दोनों नामोंके अनुरूप १. सिद्धान्तसारसंग्रहनामक ग्रन्थ जीवराज जैन ग्रन्थमाला शोलापुरसे वि० सं० २०१३ में प्रकाशित हुआ है। श्रुतघर और सारस्वताचार्य : ४३३

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