Book Title: Tirthankar Mahavira aur Unki Acharya Parampara Part 2
Author(s): Nemichandra Shastri
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala

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Page 448
________________ (छ) स्थापनानन्त - यथार्थतः अनन्त नहीं, किन्तु किसी संख्या में आरोपित अनन्त " ! 1 (ज) द्रव्यानन्स – तत्काल उपयोग न आते हुए ज्ञानकी अपेक्षा अनन्त (झ) गणनानन्त संख्यात्मक अनन्त । (ञ) अप्रदेशिकान्त - परिमाणहीन अनन्त । (ट) एकानन्त - एक दिशात्मक अनन्त । (ठ) विस्तारानन्त - द्विविस्तारात्मक - प्रतरात्मक अनन्ताकाश । (ङ) उभयानन्त - द्विदिशात्मक अनन्त – एक सांधी रेखा, जो दोनों दिशाओं में अनन्त तक जाती है । (ढ) सर्वानन्त --- आकाशात्मक अनन्त । (ण) भावानन्त - ज्ञानको अपेक्षा अनन्त । अनन्तके सामान्यतया १. परीतानन्त, २ युक्तानन्त, ३. अनन्तानन्त ये तीन भेद माने जाते हैं। इन तीनोंके जधन्य, मध्यम और उत्कृष्टके भेदसे तीनतीन भेद होनेसे कुल नौ भेद हो जाते हैं । त्रिलोकसारमें उक्त ३+९+९ - २१ भेद वर्णित है । त्रिलोकसारमें धारासंख्याओंका भी कथन आया है । ये १४ प्रकारकी होती हैं १. सबंधारा - १+२+३+४+ ५ 'अनन्तानन्स + न २. समधारा - २+४+६+८+१०+ ११ + १४ + १६ + १८ ३. विषमधारा - १ + २ = ३, ४ + - १= ५, ६ + १ = ७,८ + १ = १३,१४ + - १ = 1 - - १ = ९,१०+१=११, १२ + - - - १ - १९ न+ १५, १६ + १ = १७, १८+ - १ - न तथा वि + १ ቐ ४. कृतिधारा - १३ - १, २-४, ३९, ४२ = १६, ५२= २५, ६ = ३६, ७१ = ४९, ८२=६४, ९२ = ८१, १०२ = १००, ११ = १२१, १२२ = १४४, १३२ = १६९ -- -नं I ५. अकृतिधारा - २, ३, ५, ७, ८, १०, ११, १२, १३, १४, १५, १७.... 10 न - १ न A ६. घनवारा—१ - १, २' = ८, ३१ = २७, ४ - ६४, ५० १२५, ६ - २१६.....न' - न ४३० : सीकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा

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